SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 556
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगमों का व्याख्यात्मक साहित्य ५२७ गया है और विषय को स्पष्ट करने के लिए कथाओं का भी उपयोग किया गया है। वृत्तिकार ने लिखा है टुनदु धातु से समृद्धि अर्थ में धातोरुदितोनम् सूत्र से नम् करने से नन्दि शब्द बनता है जिसका अर्थ प्रमोद या हर्ष है। नन्दि, प्रमोद हर्ष का कारण होने से ज्ञानपञ्चक का निरूपण करने वाला अध्ययन ही नन्दि कहा गया है। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो जिसके द्वारा प्राणी प्रसन्न होता है वह नन्दि है। कुछ स्थलों पर इसे नन्दी कहा गया है। उनके अभिमतानुसार इक कृष्यादिभ्यः सूत्र से इक प्रत्यय करके स्त्रीलिङ्ग में 'इतोऽक्त्यर्थात्' सूत्र से ङी प्रत्यय करने पर नन्दी बनता है। निक्षेप पद्धति से नन्दी पर चिन्तन करने के पश्चात् स्तुतिपरक गाथाओं की विस्तृत व्याख्या की गई है। इस व्याख्या में जीव सत्ता सिद्धि, शाब्द प्रामाण्य, वचन अपौरुषेयत्व खण्डन, वीतराग स्वरूप चिन्तन, सर्वज्ञ संसिद्धि, नैरात्म्य-निराकरण, सन्तानवाद-खण्डन, वास्यवासकभाव खण्डन, अन्वयीज्ञानसिद्धि, सांख्य दृष्टि से मुक्ति का निरसन, धर्म-धर्मी भेद-अभेद सिद्धि, प्रभृति विषयों पर चिन्तन किया है। प्रस्तुत विभाग दार्शनिक चिन्तन से परिपूर्ण है। इसके पश्चात् ज्ञानपञ्चकसिद्धि, मति आदि क्रम की स्थापना, प्रत्यक्ष-परोक्ष स्वरूप पर चिन्तन, मति आदि के स्वरूप का निश्चय, अनन्तरसिद्धकेवल, परम्परसिद्धकेवल, स्त्रीमुक्ति की संसिद्धि, युगपद-उपयोग-निरसन, ज्ञान-दर्शन का अभेद, दृष्टान्त युक्त बुद्धि भेद पर विश्लेषण एवं निरूपण, अंग-प्रविष्ट, अंगबाह्य आदि श्रुत के सम्बन्ध में चिन्तन किया गया है। वृत्ति के अन्त में आचार्य ने नन्दी चूर्णिकार और नन्दी के टीकाकार आचार्य हरिभद्र को आदर के साथ नमस्कार किया है। प्रस्तुत वृत्ति का ग्रंथमान ७७३२ श्लोक प्रमाण है। प्रज्ञापनावृत्ति प्रस्तुत वृत्ति के प्रारम्भ में भगवान महावीर, जिन-प्रवचन और सद्गुरुदेव को नमस्कार कर प्रज्ञापना पर वृत्ति लिखने की प्रतिज्ञा की गई है। प्रज्ञापना वह है जिसके द्वारा जीव-अजीव पदार्थों का ज्ञान किया जाय । प्रज्ञापना समवाय का उपाङ्ग है । इसमें समवायाङ्ग में प्ररूपित अर्थ का प्रतिपादन किया गया है। यदि यह कहा जाय कि समवायाङ्ग
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy