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आगमों का व्याख्यात्मक साहित्य ५२१ वृत्ति में प्रज्ञापना का उल्लेख अनेक स्थलों पर हुआ है। एक स्थान पर गंधहस्ती के भाष्य का भी उल्लेख है। यह वृत्ति विक्रम सं० ११२० में अणहिल पाटण में पूर्ण हई। इसका श्लोक प्रमाण ३५७५ है।
व्याख्याप्रज्ञप्तिवृत्ति .... व्याख्याप्रज्ञप्ति की प्रस्तुत वत्ति मूलानुसार ही है। यह संक्षिप्त व शब्दार्थ प्रधान है। सर्वप्रथम जिनेश्वरदेव को नमस्कार किया गया है। उसके पश्चात् भगवान महावीर, सुधर्मा, अनुयोग, वृद्धजन एवं सर्वज्ञ प्रवचन को नमस्कार कर प्राचीन टीका-णि आदि के सहयोग से इस पर विवेचन लिखने का निश्चय किया गया है। वृत्तिकार ने व्याख्याप्रज्ञप्ति के विविध दृष्टियों से दस अर्थ बताये हैं। जो उनकी प्रतिभा का स्पष्ट परिचायक है। इसी प्रकार व्याख्या में यत्र-तत्र अर्थ वैविध्य दृष्टिगोचर होता है तथा उद्धरण उपलब्ध होते हैं। पाठान्तर एवं व्याख्या-भेदों की भी विविधता का प्रतिपादन किया है। विज्ञों का ऐसा मानना है कि प्राचीन टीका का जो उल्लेख किया है वह टीका आचार्य शीलाङ्क की होनी चाहिए जो आज अनुपलब्ध है। आचार्य ने कहीं पर भी उस प्राचीन टीकाकार के नाम का निर्देश नहीं किया है। प्रस्तुत वृत्ति के उपसंहार में स्वयं आचार्य अभयदेव ने अपनी गुरुपरम्परा का संक्षेप में परिचय दिया। इस वृत्ति का श्लोक प्रमाण १८६१६ है और यह अणहिल पाटण में वि० सं० ११२८ में पूर्ण हुई है।
ज्ञाताधर्मकथावृत्तियह वृत्ति भी मूल सूत्र को स्पर्श कर लिखी गई है। इस वृत्ति में शब्दार्थ की प्रधानता है। प्रारंभ में श्रमण भगवान महावीर को नमस्कार है और इसके पश्चात् चम्पा नगरी का परिचय देकर पूर्णभद्र चैत्य का परिचय दिया गया है। श्रेणिक सम्राट के पुत्र कोणिक का परिचय देकर गणधर सुधर्मा का परिचय दिया गया है। ज्ञाताधर्मकथा दो श्रुतस्कन्धों में विभक्त है। प्रथम श्रुतस्कन्ध का नाम 'ज्ञात' है जिसका अर्थ है उदाहरण । इसमें आचार आदि की शिक्षा प्रदान करने की दृष्टि से कथाओं के रूप में विविध उदाहरण दिये गये हैं। द्वितीय श्रुतस्कन्ध का नाम 'धर्मकथा' है। उसमें धर्म-प्रधान कथाओं की प्रधानता है। प्रथम श्रुतस्कन्ध में १६ अध्ययनों के कठिन शब्दों का अर्थ स्पष्ट करके प्रत्येक अध्ययन के अन्त में होने वाले विशेष अर्थ को प्रकट किया गया है। प्रथम अध्ययन का सार बताते हए वृत्तिकार ने लिखा है-'अविधिपूर्वक प्रवृत्ति करने वाले शिष्य को सही मार्ग पर लाने हेतु