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________________ ५२० जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा सिद्धि करते हुए लिखा है-प्रस्तुत शरीर का कर्ता कोई न कोई अवश्य ही होना चाहिए क्योंकि यह शरीर भोग्य है। जो भोग्य होता है उसका अवश्य ही कोई न कोई कर्ता होता है। जैसे-भोजन का निर्माता रसोइया है। जिसका कोई कर्ता नहीं वह भोग्य भी नहीं हो सकता जैसे-'आकाश कुसुम' । प्रस्तुत शरीर का कर्ता आत्मा है। यदि कोई यह तर्क करे कि रसोइये के समान आत्मा की भी मूर्तता सिद्ध होती है तो ऐसी स्थिति में प्रस्तुत हेतु साध्य विरुद्ध हो जाता है जो उचित नहीं। संसारी आत्मा कथञ्चित मूर्त भी है। यत्र-तत्र वृत्ति में निक्षेप पद्धति का भी उपयोग हुआ है, जो निर्यक्तियों और भाष्यों का सहज स्मरण कराती है। विषय को स्पष्ट करने के लिए संक्षिप्त दृष्टान्तों का भी उपयोग किया गया है। वृत्ति का ग्रन्थमान १४२५० श्लोक प्रमाण है। समवायाङ्गवृत्ति स्थानाङ्ग की भांति आचार्य ने समवायाङ्ग पर भी वृत्ति लिखी है। यह वृत्ति न बहुत संक्षिप्त है और न बहुत विस्तृत ही। प्रारम्भ में श्रमण भगवान महावीर को नमस्कार किया गया है और उन्होंने विज्ञों से यह अभ्यर्थना की है वे परम्परागत अर्थ के अभाव में अथवा मेरी अज्ञान वृत्ति के कारण वत्ति में यदि विपरीत प्ररूपणा हुई हो तो उसे अन्वेषणा करने का कष्ट करें। वत्तिकार ने 'समवाय' के अर्थ पर प्रकाश डालते हुए कहा कि समवाय में तीन पद हैं-'सम', 'अव' और 'आय'। सम का अर्थ सम्यक, अब का अर्थ 'आधिक्य' और 'आय' का अर्थ परिच्छेद है। समवाय वह है जिसमें जीव, अजीव आदि नाना पदार्थों का विस्तार के साथ सम्यक् विवेचन है। अथवा समवाय वह है जिसमें आत्मा आदि विविध प्रकार के भावों का अभिधेय रूप से सम्मिलन है। अथवा समवाय वह है जो प्रवचन पुरुष का अङ्ग रूप है। १ श्री वर्धमानमानम्य समवायांगवृत्तिका । विधीयतेऽन्यशास्त्राणां, प्रायः समुपजीवनात् ॥१॥ दुःसम्प्रदायादसदूहनाद्वा, मणिष्यते यद्वितयं मयेह । तद्धीधन मनुकम्पयद्भिः , शोध्यं मतायंक्षतिरस्तु मैव ॥२१॥ -समवायोगवृत्ति १-२, २ समवायांगवृत्ति, पृ. १३०
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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