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आगमों का व्याख्यात्मक साहित्य ५१६ वह उनके अत्यधिक उच्च कोटि के सैद्धान्तिक ज्ञान का एक ज्वलन्त प्रमाण है ।
आचार्य अभयदेव के सामने वृत्ति लिखते समय अनेक कठिनाइयाँ थीं जिनकी चर्चा उन्होंने स्थानाङ्गवृत्ति की प्रशस्ति में की है। वे ये थीं(१) सत् सम्प्रदाय का अभाव - अर्थबोध की सम्यक् गुरु परम्परा उपलब्ध नहीं है ।
(२) सत्तऊह - अर्थ की आलोचनात्मक स्थिति प्राप्त नहीं है। (३) आगम की अनेक वाचनाएँ अर्थात् अध्यापन पद्धतियाँ हैं। (४) जो पुस्तकें उपलब्ध हैं वे अशुद्ध हैं ।
(५) कृतियाँ सूत्रात्मक होने के कारण अत्यधिक गंभीर हैं । (६) अर्थ विषयक विविध भेद हैं।
इन सारी कठिनाइयों के वावजूद भी उन्होंने अपना प्रयास नहीं छोड़ा और जमकर टीकाएँ लिखीं।
प्रभाव चरित्रकार ने अभयदेव के स्वर्गवास का समय नहीं दिया है । उन्होंने इतना ही लिखा है कि वे पाटन में कर्णराज के राज्य में स्वर्गस्थ हुए। पट्टावलियों के अध्ययन से यह परिज्ञात होता है कि अभयदेव के स्वर्गवास का समय वि० सं० ११३५ और दूसरे अभिमत के अनुसार वि० सं० १९३९ हैं। पट्टावलियों में पाटन के स्थान पर कपडवंज का उल्लेख है । स्थानाङ्गवृत्ति
प्रस्तुत वृत्ति मूलसूत्रों पर है, जो शब्दार्थ तक ही सीमित नहीं है, अपितु इसमें सूत्र से सम्बन्धित प्रत्येक विषय पर गहराई से विवेचन भी हुआ है। विवेचन में दार्शनिक दृष्टि यत्र-तत्र स्पष्ट हुई है। प्रारंभ में श्रमण भगवान महावीर को नमस्कार किया गया है। मंगल पर चिन्तन करने के पश्चात् "एगे आया" पर आत्मा की एकता - अनेकता की दृष्टि से अनुचितन किया गया है। आत्मा के स्वतन्त्र अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए विशेषावश्यक भाष्य की गाथाएँ भी उद्धृत की गई हैं। अनुमान से आत्मा की
मे ॥ १॥
१ सत्सम्प्रदायहीनत्वात् सदृहस्य वियोगतः । सर्वस्वपरशास्त्राणामदृष्टेरस्मृतेश्च वाचनानामनेकत्वात् पुस्तकानामशुद्धितः । सूत्राणामतिगाम्भीर्याद् मतभेदाच्च कुत्रचित् ॥ २॥
स्थानांगवृत्ति, प्रशस्ति १-२