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५१८ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा
नियुक्त्यनुगम और सूत्रानुगम ये दो भेद अनुगम के किये हैं। निक्षेप, उपोदघात और सूत्रस्पर्श ये तीन निर्युक्त्यनुगम के भेद हैं। उद्देश, निर्देश आदि छब्बीस प्रकार उपोद्घात नियुक्त्यनुगम के किये गये हैं। उनमें से काल के, नाम, स्थापना, द्रव्य, अद्धा, यथायुष्क, उपक्रम, देश, काल, प्रमाण, वर्ण, भाव आदि भेद हैं। इनमें से उपक्रमकाल के सामाचारी और यथायुष्क ये दो प्रकार हैं । सामाचारी उपक्रमकाल के ओघ, दशधा और पदविभाग ये तीन प्रकार हैं। जो ओघसामाचारी है उसी का निरूपण ओघनिर्युक्ति में भी किया गया है।
आचार्य अभयदेव और उनकी वृत्तियाँ
नवाङ्गी टीकाकार आचार्य अभयदेव एक महान प्रतिभासम्पन्न आचार्य थे। प्रभावकचरित्र के अनुसार इनकी जन्मस्थली धारा नगरी है। वर्ण की दृष्टि से ये वैश्य थे। पिता का नाम महीधर और माता का नाम धनदेवी था । ये जिनेश्वर सूरि के शिष्य बने । वि० सं० ११२० में इन्होंने सर्वप्रथम स्थानाङ्गसूत्र पर वृत्ति लिखी और वि० सं० १९२८ में अन्तिम रचना भगवतीसूत्र की वृत्ति है जो उन्होंने अनहिल पाटण में पूर्ण की। इस प्रकार उनका वृत्ति काल वि० सं० ११२० से ११२८ है ।
प्रस्तुत अवधि में आचार्य अभयदेव मुख्य रूप से पाटण में रहे हैं। वि० सं० ११२४ में धोलका ग्राम में उन्होंने आचार्य हरिभद्र के पंचाशक ग्रन्थ पर बहुत ही महत्त्वपूर्ण व्याख्या लिखी। इससे यह सिद्ध होता है कि वे पाटण को छोड़कर सन्निकट के क्षेत्रों में भी विचरण करते रहे थे ।
टीकाओं के निर्माण में चैत्यवासियों के नेता द्रोणाचार्य का उन्हें गहरा सहयोग मिला था जिसका उन्होंने अपनी वृत्तियों में उल्लेख भी किया है । द्रोणाचार्य ने अभयदेव की वृत्तियों को आदि से अन्त तक पढ़ा और उनका संशोधन कर अपने विराट हृदय का परिचय दिया। यह सत्य तथ्य है कि द्रोणाचार्य का सहयोग यदि अभयदेव को प्राप्त न होता तो वे उस विराट् कार्य को संभवतः इतनी शीघ्रता से सम्पादित नहीं कर सकते थे ।
अभयदेव के उर्जस्वित व्यक्तित्व का वास्तविक परिचय हमें उनकी कृतियों से प्राप्त होता है। उनमें उनके विचारों का मूर्त रूप स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है । उन्होंने अपनी टीकाओं में बिन्दु में सिन्धु भरने का प्रयास किया है। उनकी पांडित्यपूर्ण विवेचना शक्ति सचमुच ही प्रेक्षणीय है । उन्होंने आगम रहस्यों को जिस सरलता व सुगमता से अभिव्यक्त किया है