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जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा
किया गया है । वत्ति में यत्र-तत्र विषय को स्पष्ट करने के लिए अन्य श्लोक व गाथाओं का भी उपयोग किया है किन्तु उसके रचयिता का कहीं पर भी नाम निर्देश नहीं किया है।
इस बत्ति के लेखन के समय आचार्य शीलांक को बाहरिगणी का मधुर सहयोग संप्राप्त हुआ जिसका वृत्तिकार ने निर्देश किया है। प्रस्तुत टीका का ग्रन्थमान १२८५० श्लोक प्रमाण है। वादिवेताल शान्तिसूरि कृत वृत्ति
शान्तिसूरि एक प्रतिभासम्पन्न आचार्य थे। उनका जन्म राधनपुर के सन्निकट उण-उन्नतायु गाँव में हुआ था। गृहस्थाश्रम में इनका नाम भीम था। इन्होंने विजयसिंह सूरि जो थारापद गच्छीय थे उनके पास दीक्षा ग्रहण की। पाटण के राजा भीमराव की सभा में ये कवि तथा वादिचक्रवर्ती के रूप में विश्रुत थे । महाकवि धनपाल के अत्याग्रह पर महाराजा भोज की सभा में भी गये थे और वहां पर ८४ वादियों को पराजित किया था जिससे राजा भोज ने उन्हें 'वादिवेताल' की उपाधि से समलंकृत किया। उन्होंने महाकवि धनपाल की तिलकमंजरी का संशोधन किया था, अन्त में विक्रम संवत् १०९६ में २५ दिन के अनशन के पश्चात् समाधिपूर्वक गिरनार पर स्वर्गस्थ हुए।
शान्तिसूरि ने तिलकमंजरी पर एक टिप्पण लिखा था। जीवविचार प्रकरण, चैत्य वन्दन महाभाष्य और उत्तराध्ययनवृत्ति इनकी महत्त्व पूर्ण रचनाएँ मानी जाती हैं।
. उत्तराध्ययन की टीका का नाम 'शिष्यहितावृत्ति' माना जाता है। इसका अपर नाम 'पाइअटीका' भी है क्योंकि इस टीका में प्राकृत की कथाओं व उद्धरणों की अत्यधिक बहुलता है । टीका मूल सूत्र व नियुक्ति इन दोनों पर है। टीका भाषा व शैली की दृष्टि से मधुर व सरस है। विषय की पुष्टि के लिए भाष्यगाथाएँ भी प्रयुक्त हुई हैं । पाठान्तर भी दिये गये हैं।
प्रथम अध्ययन की व्याख्या में नय का स्वरूप बताया है। नय की संख्या पर चिन्तन करते हुए कहा है कि पूर्वविदों ने सकलनयसंग्राही सातसौ नयों का विधान किया है । उस समय 'सप्तशतारनयचक्र' विद्यमान था। तत्संग्राही विधि आदि का प्ररूपण करने वाला बारह प्रकार के नयों का 'द्वादशारनयचक्र' संपत्ति भी उपलब्ध है।