________________
आगमों का व्याख्यात्मक साहित्य ५१५ आचार्य शीलांक की वृत्तियां
___ आचार्य शीलाङ्क का विशेष परिचय अनुपलब्ध है। उनका अपर नाम शीलाचार्य व तत्त्वादित्य भी था ।' प्रभावकचरित्र के अनुसार उन्होंने नौ अंगों पर टीकाएँ लिखी थीं किन्तु इस समय आचारांग और सूत्रकृतांग, इन दो आगमों पर ही टीकाएँ संप्राप्त होती हैं। शीलाक का समय विक्रम की नौवीं-दसवीं शताब्दी माना गया है। उनका कुल निर्वति था।
आचारांगवृत्ति यह वृत्ति मुलपाठ और उसकी नियुक्ति पर की गई है। इसमें प्रत्येक विषय की विस्तार से व्याख्या है। प्रारम्भ में आचार्य ने यह बताया है कि 'गन्धहस्ती कृत शस्त्र-परिज्ञा-विवरण कठिनतर है अत: मैं सुगम विवरण लिखंगा'। भाषा, शैली, सामग्री सभी दृष्टि से विवरण सुबोध लिखने का संकल्प किया गया है। छठे अध्ययन के अन्त में यह बताया है कि सातवें महापरिज्ञा अध्ययन का व्यवच्छेद हो गया है। विमोक्ष नाम के अष्टम अध्ययन के षष्ठ उद्देशक की वृत्ति में ग्राम, नगर आदि का विवरण दिया गया है। विवरण कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। टीका का शब्द-शरीर जितना भी व्याख्या साहित्य है उसमें सबसे बड़ा है। प्रस्तुत प्रथम श्रुतस्कन्ध की वृत्ति गुप्त सं ७७२ भाद्र शुक्ला पंचमी के दिन गम्भूता में पूर्ण हुई।२
द्वितीय श्रुतस्कन्ध की व्याख्या करते हुए अग्रश्रुतस्कन्ध यह नाम क्यों रखा गया है इस प्रश्न पर चिन्तन किया गया है।
सूत्रकृतांगवृत्ति आचार्य शीला ने सूत्रकृताङ्ग पर भी वृत्ति लिखी है। यह वृत्ति मूल और नियुक्ति पर है। इसमें दार्शनिक चिन्तन की प्रधानता है। स्वमत और परमत की मान्यताओं का निरूपण करके स्वमत की महत्ता का प्रतिपादन
१ ब्रह्मचर्याख्यश्रुतस्कन्धस्य नितिकुलीनशीलाचार्येण तत्त्वादित्यापरनाम्ना बाहरिसाधुसहायेन कृता टीका परिसमाप्ता।
-आचारांगवृति पत्र २८७ २ द्वासप्तत्यषिकेषु हि शतेषु सप्तसु गतेषु गुप्तानाम् ।
संवत्सरेषु मासि च, भाद्रपद शुक्लपञ्चम्याम् ।। शीलाचार्येणकृता गम्भूतायां स्थितेन टीकषा। सम्यगुपयुज्य शोध्यं मात्सर्यविनाकृतैरायः ।।
-आचारांगवृत्ति पत्र २८७