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आगमों का व्याख्यात्मक साहित्य
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है । गति, इन्द्रिय, कषाय, लेश्या, योग, उपयोग, ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वेद ये जीव के परिणाम हैं।
अगले पदों की व्याख्या में कषाय, इन्द्रिय, प्रयोग, लेश्या, कायस्थिति, अन्तक्रिया, अवगाहना, संस्थान आदि, क्रियाएँ, कर्मप्रकृति, कर्मबंध, आहार परिणाम, उपयोग, पश्यता, संज्ञा, संयम, अवधि, प्रवीचार, वेदना, समुद्घात आदि पर विवेचन किया गया है।
आवश्यकवृत्ति
• प्रस्तुत वृत्ति आवश्यक नियुक्ति पर की गई है। किन्तु आवश्यकचूर्णि के पदों का इसमें अनुसरण न करके सर्वतन्त्र स्वतन्त्र रूप से विषय का प्रतिपादन किया है। प्रस्तुत वृत्ति को देखकर विज्ञों ने यह अनुमान किया है कि आचार्य हरिभद्र ने आवश्यकसूत्र पर दो वृत्तियाँ लिखीं थीं। वर्तमान में जो टीका उपलब्ध नहीं है वह टीका उपलब्ध टीका से बड़ी थी क्योंकि आचार्य ने स्वयं लिखा है 'व्यासार्थस्तु विशेषविवरणादवगन्तव्य इति ।' अन्वेषणा करने पर भी वह टीका अभी तक मिल नहीं सकी है।
वृत्ति में ज्ञान का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए आभिनिबोधिक ज्ञान का यह दृष्टियों से विवेचन किया है। श्रुत, अवधि, मनःपर्यव और केवल ज्ञान का भी भेद आदि की दृष्टि से विवेचन किया गया है।
सामायिक आदि के २३ द्वारों का विवेचन नियुक्ति के अनुसार किया गया है । सामायिक के निर्गम-द्वार में कुलकरों की उत्पत्ति और उनके पूर्वभवों के सम्बन्ध में भी सूचन किया गया है। भगवान ऋषभ के पूर्वभव, उनके संवत्सर के पश्चात् पारणे का कथानक देकर विशेष जिज्ञासुओं को वसुदेवहिंड देखने का निर्देश किया है।
अरिहन्त प्रत्यक्षरूप से सामायिक के अर्थ की अनुभूति करते हैं। उनकी अभिव्यक्ति को सुनकर गणधरों की समस्त शंकाएँ नष्ट हो जाती हैं। उन्हें उनकी सर्वज्ञता में पूर्ण विश्वास हो जाता है।
संक्षेप में गया है। किया है।
संकेत किया गया
ध्यान के प्रसंग में परिस्थापना विधि
निर्युक्ति और चूर्ण में जिन विषयों का है उन्हीं का इसमें अत्यधिक विस्तार किया ध्यान शतक की समस्त गाथाओं पर विवेचन पर प्रकाश डालते हुए सम्पूर्ण परिस्थापना निर्युक्ति उद्धृत की गई है। प्रस्तुत वृत्ति में प्राकृत भाषा में दृष्टान्त भी विषय को स्पष्ट करने के लिए दिये गये हैं और इस वृत्ति का नाम शिष्यहिता है। इसका ग्रन्थमान