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________________ ५१२ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा वाले फल का प्रतिपादन किया है। दसवें अध्ययन की वृत्ति में सुभिक्षु का स्वरूप बताया है । चूलिकाओं में भी धर्म के रतिजनक, अरतिजनक कारणों पर प्रकाश डाला गया है। प्रस्तुत वृत्ति में अनेक प्राकृत कथानक व प्राकृत तथा संस्कृत भाषा के उद्धरण भी आये हैं । दार्शनिक चिन्तन भी यत्र-तत्र मुखरित हुआ है। प्रज्ञापनाप्रदेशव्याख्या प्रस्तुत वृत्ति प्रज्ञापनासूत्र के पदों पर है। यह वृत्ति संक्षिप्त, सारपूर्ण और सरल है । यत्र-तत्र संस्कृत और प्राकृत भाषा के उद्धरणों का भी प्रयोग किया गया है। प्रथम मंगल का महत्व प्रतिपादित किया गया है और उसके विशेष विवरण के लिए आवश्यक टीका को देखने का निर्देश किया गया है । प्रसंगानुसार भव्य और अभव्य का स्वरूप भी बताया है । प्रज्ञापना का विषय जीवप्रज्ञापना और अजीवप्रज्ञापना का वर्णन कर एकेन्द्रियादि जीवों का विस्तार से वर्णन किया है। द्वितीय पद की व्याख्या में पाँच स्थावर तीन विकलेन्द्रिय आदि स्थानों का वर्णन है । तृतीय पद की व्याख्या में काया आदि के अल्पबहुत्व, वेद, लेश्या, इन्द्रियों की दृष्टि से जीव विचार, लोक की दृष्टि से अल्प-बहुत्व, आयु के बंध की दृष्टि से, पुद्गल की दृष्टि से, द्रव्य की दृष्टि से, अवगाढत्व की दृष्टि से अल्पबहुत्व का वर्णन है । चतुर्थ पद में नारकीय जीवों की स्थिति का वर्णन है । पञ्चम पद में नारक पर्याय, अवगाह षट्स्थानक, कर्मस्थिति, जीवपर्याय पर विचार किया गया है। छठे और सातवें पद में नारक के विरह काल का वर्णन है । आठवें पद में संज्ञाओं का विश्लेषण है। संज्ञा का अर्थ आभोग या मनोविज्ञान है। मनोविज्ञान की दृष्टि से संज्ञा का महत्व विशेष रूप से है । आधुनिक मनोविज्ञान की दृष्टि से यदि हम चिन्तन करें तो संज्ञा को ज्ञान और संवेदन में एवं क्रिया को अभिव्यक्ति और प्रवृत्ति में समाविष्ट कर सकते हैं। ओघसंज्ञा को दर्शनोपयोग और लोकसंज्ञा को ज्ञानोपयोग कहा जा सकता है। नवम पद की व्याख्या में विविध योनियों पर चिन्तन किया है। दशम पद में रत्नप्रभा प्रभृति पृथ्वियों का चरम और अचरम की दृष्टि से विवेचन है। ग्यारहवें पद में भाषा के स्वरूप पर विचार व्यक्त किया गया है । बारहवें पद की व्याख्या में औदारिक आदि शरीर के स्वरूप पर सामान्य विवेचन है । तेरहवें पद में जीव अजीव के अनेकविध परिणामों पर चिन्तन
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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