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________________ ५१. जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा पर स्वयं उनके उल्लेखानुसार जिनभट उनके गच्छपति गुरु थे किन्तु जिनदत्त उनके दीक्षागुरु थे । याकिनी महत्तरा उनकी धर्ममाता थीं। उनका कूल विद्याधर था। गच्छ एवं सम्प्रदाय श्वेताम्बर था। आचार्य हरिभद्र ने १४४४ ग्रन्थों की रचना की थी। राजशेखर सरि ने चतुर्विशतिप्रबन्ध एवं मुनि क्षमाकल्याण ने खरतरगच्छ की पट्टावली में लिखा है कि बौद्धों के संहार करने के संकल्प के कारण उनके गुरु ने १४४४ ग्रन्थ लिखने की आज्ञा प्रदान की थी। आचार्य हरिभद्र ने अपने प्रत्येक ग्रन्थ के अन्त में 'विरह' शब्द का प्रयोग किया है। प्रभावकचरित्रानुसार अपने दो अत्यन्त प्रिय शिष्यों के विरह से व्यथित होकर ही उन्होंने प्रत्येक ग्रन्थ के अन्त में 'विरह' शब्द लिखा है। वर्तमान में हरिभद्र सूरि के ७५ ग्रन्थ मिलते हैं। जिनमें उनके प्रकाण्ड पाण्डित्य और विलक्षण प्रतिभा के संदर्शन होते हैं। उनकी मुद्रित टीकाओं का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है नन्दीवृत्ति इस वृत्ति में नन्दीणि का ही रूपान्तर किया गया है। इसमें उन्हीं विषयों पर प्रकाश डाला गया है जो नन्दीणि में हैं। टीकाकार ने केवलज्ञान और केवलदर्शन के स्वरूप का विश्लेषण करते हुए उसके यौगपद्य के समर्थन हेतु सिद्धसेन का नाम बताया है, क्रमिकत्व के लिए जिनभद्र का और अभेद के समर्थन के लिए वृद्धाचार्यों का नाम निर्देश किया है। विज्ञों का ऐसा मन्तव्य है कि इसमें जिन सिद्धसेन का नाम आया है वे सिद्धसेन दिवाकर से पृथक् हैं, क्योंकि सिद्धसेन दिवाकर तो अभेदबाद के प्रवर्तक हैं। केवलज्ञान-केवलदर्शन को युगपत् मानने की परम्परा दिगम्बरों की है। अनुयोगद्वारवृत्ति अनुयोगद्वारवृत्ति का निर्माण भी अनुयोगद्वारणि के आधार से हुआ • है। प्रथम भगवान महावीर को नमस्कार किया गया है। आवश्यक शब्द पर निक्षेप पद्धति से चिन्तन किया है । श्रुत पर निक्षेप पद्धति से विचार कर टीकाकार ने चतुर्विध श्रुत के स्वरूप को आवश्यक विवरण से समझाने का १ सिताम्बराचार्यजिनभटनिगदानुसारिणो विद्याधरकुलतिलकाचार्यजिनदत्तशिष्यस्य धर्मतो याकिनीमहत्तरासूनोः अल्पमतेः आचार्यहरिभद्रस्य । -बावश्यकनियुक्ति टीका का अन्त
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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