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________________ ५०४ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा "", अयोग्य दीक्षा का निषेध करते हुए कहा है कि अठारह प्रकार के पुरुष, बीस प्रकार की स्त्रियाँ और दस प्रकार के नपुंसक ये अयोग्य हैं। बाल दीक्षा के तीन भेद किये हैं-(१) सात-आठ वर्ष का बालक उत्कृष्ट बाल है, (१) पांच-छह वर्ष की आयु वाला मध्यम बाल है और (३) चार वर्ष तक की आयु वाला जघन्य बाल है। ये सभी दीक्षा के अयोग्य हैं । आठ वर्ष से अधिक आयु वाला बालक ही दीक्षा के योग्य माना गया है । वृद्ध, रोगी, उन्मत्त, मूढ़ आदि जो दीक्षा के अयोग्य हैं उनका भी विविध भेदों से वर्णन किया है। प्रसंगानुसार सोलह प्रकार के रोग, आठ प्रकार की व्याधियों का भी निरूपण है। व्याधि और रोग में यही अन्तर है कि व्याधि का नाश शीघ्र होता है किन्तु रोग का नाश लम्बे समय में होता है। बाल-मरण और पण्डितमरण पर भी विस्तार से विश्लेषण किया गया है।। बारहवें उद्देशक में त्रस प्राणी सम्बन्धी बन्धन व मुक्ति, प्रत्याख्यान, भंग आदि का वर्णन हुआ है । तेरहवें उद्देशक में स्निग्ध पृथ्वी, शिला आदि पर कायोत्सर्ग, गृहस्थ को कटक वचन, मंत्र, लाभ व हानि; धातु का स्थान आदि बताना; वमन-विरेचन प्रतिकर्म करना, पार्श्वस्थ, कुशील की प्रशंसा व वन्दन; धात्रीपिण्ड, दुतीपिण्ड, निमित्तपिण्ड, चिकित्सापिण्ड, क्रोधादिपिण्ड का भोग करना ये सभी चतुर्लघु प्रायश्चित्त के योग्य हैं । चौदहवें उद्देशक में पात्र सम्बन्धी दोषों का निरूपण कर उससे मुक्त होने के लिए प्रायश्चित्त का विधान है। पन्द्रहवें उद्देशक में श्रमण-श्रमणियों को सचित्त आम खाने का निषेध किया है। द्रव्य आम के उस्सेतिम, संसेतिम, उवक्खड और पालिय ये चार भेद हैं और पलित आम के चार प्रकार बताये हैं। श्रमण-श्रमणियों की दृष्टि से तालप्रलम्ब के ग्रहण की विधि पर भी प्रकाश डाला है। सोलहवें उद्देशक में श्रमण को देहविभूषा और अत्युज्ज्वल उपधिधारण का निषेध किया है। श्रमण-श्रमणियों को ऐसे स्थान पर रहना चाहिए जहाँ पर रहने से उनके ब्रह्मचर्य की विराधना न हो। जुगुप्सित यानि घृणित कुल में आहार ग्रहण नहीं करना चाहिए। जुगुप्सित इत्वरिक और यावत्कथिक रूप में दो प्रकार है। सूतक आदि वाले घर कुछ समय के लिए जुगुप्सित होते हैं । लुहार, कलाल, चर्मकार ये यावकथिक-जुगुप्सित कुल हैं। पूर्व में मगध से लेकर पश्चिम में स्थूणा पर्यन्त और दक्षिण में
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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