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आगमों का व्याख्यात्मक साहित्य
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कौशाम्बी से लेकर उत्तर में कुणाला पर्यन्त आर्य देश है, जहाँ पर श्रमण को विचरना चाहिए । भाष्यकार की भी यही मान्यता रही है।
सत्रहवें उद्देशक में गीत, हास्य, वाद्य, नृत्य, अभिनय आदि का स्वरूप बताकर श्रमण के लिए उनका आचरण करना योग्य नहीं माना गया है, और प्रायश्चित्त का विधान किया गया है।
अठारहवें उद्देशक में नौका सम्बन्धी दोषों पर चिन्तन किया गया है। नौका पर आरूढ़ होना, नौका खरीदना, नौका को जल से स्थल और स्थल से जल में लेना, नौका में पानी भरना या खाली करना, नौका को खेना, नाव से रस्सी बाँधना आदि के प्रायश्चित्त का वर्णन है।
उन्नीसवें उद्देशक में स्वाध्याय और अध्यापन के सम्बन्ध में चिन्तन किया है। स्वाध्याय का काल, अकाल, विषय, अस्वाध्याय काल में स्वाध्याय करने से लगने वाले दोष, अयोग्य व्यक्ति को, पार्श्वस्थ व कुशील को अध्ययन कराने से लगने वाले दोष, और योग्य व्यक्ति को न पढ़ाने से लगने वाले दोषों पर प्रकाश डाला है।
बीसवें उद्देशक में मासिक आदि परिहार स्थान, प्रतिसेवन, आलोचन, प्रायश्चित्त आदि पर चिन्तन किया गया है।
चूणि के उपसंहार में लेखक ने अपना नाम जिनदासगणी महत्तर बताया है और चूणि का नाम विशेषचूणि लिखा है।
प्रस्तुत चूणि का चूणि साहित्य में एक विशिष्ट स्थान है। इसमें आचार के नियमोपनियम की सविस्तृत व्याख्या है। भारत की सांस्कृतिक, सामाजिक, दार्शनिक प्राचीन सामग्री का इसमें अनूठा संग्रह है। अनेक ऐतिहासिक और पौराणिक कथाओं का सुन्दर संकलन है। धूर्ताख्यान, तरंगवती, मलयवती, मगधसेन, आर्य कालक, आदि की कथाएं प्रेरणात्मक हैं।
दशाश्रुतस्कन्धचूर्णि दशाश्रुतस्कन्धचूणि का मूल आधार दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति है। प्रथम मंगलाचरण किया गया है। उसके पश्चात् दस अध्ययनों के अधिकारों का विवेचन किया गया है, जो सरल और सुगम है। मूल पाठ में और चूर्णि सम्मत पाठ में किञ्चित् अन्तर है। यह चूणि मुख्य रूप से प्राकृत भाषा में है, यत्र-तत्र संस्कृत शब्दों व वाक्यों के प्रयोग भी दिखलाई देते हैं।