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५०० जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा संस्कृत भाषा का प्रयोग नहीं हुआ है। विषय को स्पष्ट करने के लिए अन्य अनेक ग्रन्थों से गाथाएँ उट्टङ्कित की गई हैं पर उन स्थलों का नाम निर्देश नहीं किया गया है।
निशीथविशेषचूणि निशीथचूणि के रचयिता जिनदासगणी महत्तर हैं। इस चूणि को विशेषचूणि कहा गया है। इस चूणि में मूल सूत्र, नियुक्ति व भाष्य गाथाओं का विवेचन है। इस चूणि की भाषा संस्कृत मिश्रित प्राकृत है।
चूर्णिकार ने प्रथम अरिहन्त, सिद्ध और साधुओं को नमस्कार किया है. और अर्थ प्रदाता प्रद्युम्न क्षमाश्रमण को भी नमस्कार किया गया है। आचार, अन, प्रकल्प, चूलिका और निशीथ इन सबका निक्षेप-पद्धति से चिन्तन किया गया है। निशीथ का अर्थ है, अप्रकाश-अंधकार । अप्रकाशित वचनों के सही निर्णय हेतु निशीथसूत्र है। लोक व्यवहार में भी निशीथ का प्रयोग रात्रि के अंधकार के लिए होता है। निशीथ के अन्य अर्थ भी दिये गये हैं। जिससे आठ प्रकार के कर्मपंक शान्त किये जायें वह निशीथ है। ..
प्रथम पुरुष प्रतिसेवक का वर्णन है उसके पश्चात् प्रतिसेवना और प्रतिसेवितव्य का स्वरूप बताते हुए अप्रमादप्रतिसेवना, सहसात्करण, प्रमादप्रतिसेवना, क्रोध आदि कषाय, ज्ञान-दर्शन-चारित्र की विराधना, विकथा, इन्द्रिय, निद्रा आदि अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों पर विवेचन किया गया है। आलस्य, मैथुन, निद्रा, क्षुधा और आक्रोश इन पांचों का जितना सेवन किया जाय उतना ही वे द्रौपदी के दुकूल की तरह बढ़ते रहते हैं।
...स्त्यानद्धि निद्रा वह है जिसमें तीव्र दर्शनावरण कर्म का उदय होता है। जिस निद्रा में चित्त स्त्यान-कठिन या जम जाय वह स्त्यानद्धि है। उसके स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए चूर्णिकार ने पुद्गल, मोदक, कुम्भकार और हस्तीदन्त के उदाहरण दिये हैं।
... षट्जीवनिकाय की यतना, उसमें लगने वाले दोष, अपवाद और प्रायश्चित्त का पीठिका में विवेचन किया गया है। असन, पान, वसन, वसति, हलन-चलन, शयन, भ्रमण, भाषण, गमन, आगमन आदि पर विचार किया गया है।
प्राणातिपात का विवेचन करते हुए मृषावाद को लौकिक और लोकोत्तर इन दो भागों में विभक्त किया गया है। लौकिक मुषावाद में शशक, एलाषाढ, मूलदेव, खण्डपाणा इन चार धूतों के आख्यान हैं। इस