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आगमों का व्याख्यात्मक साहित्य ४६६
सूत्रकृतांगणि यह चूणि भी सूत्रकृताङ्गनियुक्ति के आधार से ही लिखी गई है। इस चूणि की भी वही शैली है जो आचारांगचूणि की है। यह चूणि संस्कृत मिश्रित प्राकृत भाषा में लिखी गई है तथापि प्राकृत से अधिक संस्कृत भाषा का प्रयोग हुआ है।
इस चणि में मंगलचर्चा, तीर्थ की संसिद्धि, संघात, विस्रसाकरण, बन्धन आदि परिणाम, भेदादिपरिणाम, क्षेत्रादिकरण, आलोचना, परिग्रह, ममता, पञ्चमहाभूतिक, एकात्मवाद, तज्जीवतच्छरीरवाद, आत्मवाद, स्कन्धवाद, नियतिवाद, अज्ञानवाद, कर्तृत्ववाद, त्रिराशिवाद, लोकचिन्तन, प्रतिजुगुप्सा, वस्त्र आदि का प्रलोभन, भगवान महावीर के गुण, उनकी गुणस्तुति, कुशीलता, सुशीलता, पराक्रम निरूपण, समाधि, दान, समवसरण, वैनयिकवाद, नास्तिकमत, सांख्यमत, ईश्वरकर्तृत्व, नियतिवाद, आदि की चर्चाएं, भिक्षु, आहार, वनस्पति व पृथ्वीकायादि भेद, स्याद्वाद, आजीवकमत, गोशालकमत, बौद्धमत, जातिवाद आदि मतों का निरसन किया गया है। विषय-विवेचन संक्षेप में होने पर भी बहुत ही स्पष्ट है।
___ जोतकल्प-बृहच्चूर्णि जीतकल्प-बृहच्चूणि के रचयिता सिद्धसेन सूरि माने जाते हैं। इस चूणि से यह भी परिज्ञात होता है कि इस पर एक दूसरी चूणि और भी थी।
चूणि के प्रारम्भ में भगवान महावीर, गणधर और विशिष्ट श्रुतधर आचार्यों को नमस्कार किया गया है। उन आचार्यों के नामों में आचार्य जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण के नाम का भी उल्लेख हुआ है।
जीतकल्पभाष्य में जिन विषयों पर विस्तार से विवेचन है उन्हीं विषयों पर प्रस्तुत चूणि में संक्षेप से विचार किया गया है। इसमें आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीतव्यवहार के स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है। दस प्रकार के प्रायश्चित्त, नौ प्रकार के व्यवहार, मूलगुण, उत्तरगुण आदि पर भी विवेचन हुआ है।
चूणि में प्रारम्भ से अन्त तक प्राकृत भाषा का ही प्रयोग हआ है,
१ अहवा बितियचुन्निकारामिपाएण चत्तारि...
-जीतकल्पणि, पृ० २३