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जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा
उत्तराध्ययनचूणि इस चूणि में उत्तराध्ययननियुक्ति का अनुसरण किया गया है। संयोग, पुद्गलबंध, संस्थान, विनय, क्रोधनिवारण का उपाय, अनुशासन, परीषह, मरण, निर्ग्रन्थ के पाँच प्रकार, सात भय, ज्ञान-क्रिया आदि पर उदाहरण सहित प्रकाश डाला गया है। स्त्री परीषह के वर्णन में स्त्री के स्वभाव की चंचलता आदि दुर्गुणों पर प्रकाश डाला है।
दशवकालिक और उत्तराध्ययनणि ये दोनों एक ही आचार्य की रचना है क्योंकि इस चूणि में स्वयं आचार्य ने लिखा है कि 'प्रकीर्ण तप का वर्णन दशवकालिक चूणि में कर चुका हूँ।' अत: यह स्पष्ट है कि दशवकालिकचूणि के पश्चात् ही उत्तराध्ययनचूणि की रचना की गई है।
आचारांगचूणि आचारांगनियुक्ति में जिन विषयों पर विवेचन किया गया है उन्हीं विषयों पर चूणि में भी कुछ विस्तार से प्रकाश डाला गया है। अनुयोग, अंग, आचार, ब्रह्म, वर्ण, आचरण, शस्त्र, परिज्ञा, संज्ञा, दिक, सम्यक्त्व, योनि, कम, पृथ्वी, अप, तेज, आदि काय, लोक, विजय, गुणस्थान, परिताप, विहार, रति, अरति, लोभ, जुगुप्सा, गोत्र, ज्ञाति, जातिस्मरण, एषणा, देशना, बन्धमोक्ष, शीत-उष्ण परीषह, तत्त्वार्थ-श्रद्धा, जीवरक्षा, अचेलकत्व, मरण-संलेखना, समनोज्ञत्व, तीन याम, तीन-वस्त्र, भगवान महावीर की दीक्षा, देवदूष्य वस्त्र, सवस्त्रता आदि मुख्य विषयों पर व्याख्या की गई है।
नियुक्तिकार की भांति चूणिकार ने भी निक्षेप दष्टि से चिन्तन किया है।
द्वितीय श्रुतस्कन्ध में अग्र, प्राणसंसक्त, पिण्डेषणा, शय्या, ईर्या, भाषा, वस्त्र, पात्र, अवग्रह सप्तक, सप्तसतक, भावना, विमुक्ति आदि विषयों की व्याख्या की गई है। श्रमणाचार की प्रतिष्ठा स्थापित करने के लिए प्रत्येक विषय के विश्लेषण में उसी पर ध्यान रखा गया है।
प्रस्तुत चूणि में संस्कृत के श्लोक व प्राकृत गाथाएँ अन्य ग्रन्थों से उद्धृत की गई हैं पर उद्धरणों के स्थल का निर्देश नहीं किया गया है। यदि उद्धरणों के स्थलों का निर्देश होता तो सोने में सुगन्ध का कार्य होगा।