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४६६ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा नियुक्ति साहित्य में अनुमानविद्या या तर्कविद्या को स्थान मिला। उसका विशदीकरण प्रस्तुत चूणि में हुआ है। उसके पश्चात् आचार्य अकलंक आदि ने इस विषय को आगे बढ़ाया।
अगस्त्यसिंह के सामने दशवकालिक की अनेक वत्तियाँ थीं। सम्भव है वे वत्तियां या व्याख्याएँ मौखिक हों इसलिए 'उपदेश' शब्द का प्रयोग हुआ हो। 'भदियायरिओवएस' और "दत्तिलायरिओवएस" की उन्होंने कई बार चर्चा की है । यह सत्य है कि दशवकालिक की वृत्तियां प्राचीनकाल से ही प्रारम्भ हो चुकी थीं। आचार्य अपराजित जो यापनीय थे, उन्होंने दशवकालिक की विजयोदया नामक टीका लिखी थी। पर यह टीका स्थविर अगस्त्यसिंह के समक्ष नहीं थी। अगस्त्यसिंह ने अपनी चूणि में अनेक मतभेद या व्याख्यान्तरों का भी उल्लेख किया है।
. ध्यान का सामान्य लक्षण “एगग्ग चिन्ता-निरोहो झाणं" उसकी व्याख्या में कहा है कि एक आलम्बन की चिन्ता करना यह छदमस्थ का ध्यान है। योग का निरोध यह केवली का ध्यान है क्योंकि केवली को चिन्ता नहीं होती।
ज्ञानाचार का स्पष्टीकरण करते हुए कहा है कि प्राकृत भाषा निबद्ध सूत्र का संस्कृत रूपान्तर नहीं करना चाहिए क्योंकि व्यञ्जन में विसंवाद करने पर अर्थ विसंवाद होता है।
'रात्रिभोजनविरमणवत' को मूलगुण माना जाय या उत्तरगुण ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा है कि यह उत्तरगुण ही है किन्तु मूलगुण की रक्षा हेतु होने से मूलगुण के साथ कहा गया है। वस्त्रपात्रादि संयम और लज्जा के लिए रखे जाते हैं अत: वे परिग्रह नहीं हैं। मूर्छा ही परिग्रह है। चोलपट्टगादि का भी उल्लेख है।
धर्म की व्यावहारिकता का समर्थन करते हुए कहा है---अनन्तज्ञानी भी गुरु की उपासना अवश्य करे । (६।१।११)
'देहदुक्खं महाफलं' की व्याख्या में कहा है 'दुक्खं एवं सहिज्जमाणं
१ दशवकालिकटीकायां श्री विजयोदयायां प्रपञ्चिता उद्गमादिदोषा इति नेह प्रतम्यते ॥
-भगवती आराधना टीका विजयोत्या गा० १९९५ देखिए-२-२६, ३-५, १६-६, २५-५, ६४.४, ७८-२६; २१-३४, १००-२५, आदि।