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जैन आगम साहित्य : एक अनुशीलन २३ डा० सारपेन्टियर, डा० विन्टरनित्ज और डा० ग्यारीनो ने (१) उत्तराध्ययन, (२) आवश्यक, (३) दशवैकालिक, एवं ( ४ ) पिण्ड निर्युक्ति को मूल सूत्र माना है ।
डा० सुबिंग ने उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, आवश्यक, पिण्ड निर्युक्ति और ओ नियुक्ति को मूल सूत्र की संज्ञा दी है।
स्थानकवासी और तेरापंथी सम्प्रदाय उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, नन्दीसूत्र और अनुयोगद्वार को मूल सूत्र मानते हैं ।
कहा जा चुका है कि 'मूल' सूत्र की तरह 'छेद' सूत्र का नामोल्लेख भी नन्दी सूत्र में नहीं हुआ है। 'छेद सूत्र' का सबसे प्रथम प्रयोग आवश्यक निर्युक्ति में हुआ है। उसके पश्चात् विशेषावश्यक भाष्य और निशीथ भाष्य' आदि में भी यह शब्द व्यवहृत हुआ है। तात्पर्य यह है कि हम आवश्यक नियुक्ति को यदि ज्योतिर्विद वराहमिहिर के भ्राता द्वितीय भद्रबाहु की कृति मानते हैं तो वे विक्रम की छठी शताब्दी में हुए हैं। उन्होंने इसका प्रयोग किया है। स्पष्ट है कि 'छेद सुत्त' शब्द का प्रयोग 'मूल सुत्त' से पहले हुआ है ।
अमुक आगमों को 'छेदसूत्र' यह अभिधा क्यों दी गई ? इस प्रश्न का उत्तर प्राचीन ग्रन्थों में सीधा और स्पष्ट प्राप्त नहीं है । हाँ यह स्पष्ट है कि जिन सूत्रों को 'छेदसुत्त' कहा गया है वे प्रायश्चित्त सूत्र हैं।
स्थानाङ्ग में श्रमणों के लिए पाँच चारित्रों का उल्लेख है
१ ए हिस्ट्री ऑफ दी केनोनिकल लिटरेचर ऑफ दी जेन्स, पृ० ४४-४५ लेखक एच० आर० कापडिया ।
२ (क) जैनदर्शन, डा० मोहनलाल मेहता पृ० ८६, प्र० सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा । (ख) जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, पृ० २८ प्रस्तावक पं० दलसुख मालवणिया ३ जं च महाकप्पसुर्य, जाणि असेसाणि छेअसुत्ताणि चरणकरणाणुओगो ति कालियत्थे उबगयाणि ॥
- आवश्यक नियुक्ति ७७७ - विशेवावश्यकभाष्य २२६५
४ वही
५ (क) छेदसुत्ताणि सीहादी, अत्थो य गतो य छेदसुत्ताथी । मंतनिमित्तोसहिपाहुडे, य
- निशीथभाव्य ५६४७
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गात अण्णात् ।।
(ख) केनोनिकल लिटरेचर, पृ० ३६ भी देखिए ।
६ जैनागमधर और प्राकृत वाङ्मय - लेखक पुण्यविजयजी,
- मुनि हजारीमल स्मृति ग्रन्थ, पृ० ७१८