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२२ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा के प्रथम श्रुतस्कन्ध को मूल मानना चाहिये, क्योंकि वही भगवान महावीर के मूल शब्दों का सबसे प्राचीन संकलन है।
हमारे मन्तव्यानुसार जिन आगमों में मुख्य रूप से श्रमण के आचार सम्बन्धी मूल गुणों महाव्रत, समिति, गुप्ति आदि का निरूपण है और जो श्रमण-जीवनचर्या में मूल रूप से सहायक बनते हैं और जिन आगमों का अध्ययन श्रमण के लिए सर्वप्रथम अपेक्षित है उन्हें मूलसूत्र कहा गया है।
...हमारे इस कथन की पुष्टि इस बात से भी होती है कि पूर्वकाल में आगमों का अध्ययन आचारांग से प्रारंभ होता था। जब दशवकालिक सूत्र का निर्माण हो गया तो सर्वप्रथम दशवकालिक का अध्ययन कराया जाने लगा और उसके पश्चात् उत्तराध्ययन पढ़ाया जाने लगा।'
पहले आचारांग के 'शस्त्रपरिज्ञा प्रथम अध्ययन से शैक्ष की उपस्थापना की जाती थी परन्तु दशवकालिक की रचना होने के पश्चात् उसके चतुर्थ अध्ययन से उपस्थापना की जाने लगी। - मूलसूत्रों की संख्या के संबंध में भी मतैक्य नहीं है। समयसुन्दर गणी ने (१) दशबैकालिक, (२) ओघनियुक्ति, (३) पिण्डनियुक्ति, (४) और उत्तराध्ययन ये चार मूलसूत्र माने हैं। भावप्रभसूरि ने (१) उत्तराध्ययन, (२) आवश्यक, (३) पिण्डनियुक्ति-ओघनियुक्ति और (४) दशवकालिक ये चार मूलसूत्र माने हैं।
प्रो० बेवर और प्रो० बूलर ने (१) उत्तराध्ययन, (२) आवश्यक एवं (३) दशवकालिक को मूल सूत्र कहा है।
आयारस्स उ उवरि, उत्तरज्झयणा उ आसि पुव्वं तु । दसवेयालिय उरि इयाणि किं तेन होवंती उ॥
-व्यवहारभाष्य उद्देशक ३, गा० १७६ (संशोधक मुनि माणक०, प्र. वकील केशवलाल प्रेमचन्द, भावनगर) २ पुव्वं सत्थपरिण्णा, अधीय पढियाइ होइ उवट्ठवणा । इण्हिच्छज्जीवणया, कि सा उ न होउ उवट्ठवणा ।।
-व्यवहारभाष्य उद्दे० ३, गा० १७४ ३ समाचारी शतक। ४ अथ उत्तराध्ययन-आवश्यक-पिण्डनियुक्ति तथा ओधनियुक्ति-दशवकालिक-इति ..... चत्वारि मूलसूत्राणि । -जैनधर्मवरस्तोत्र, श्लो० ३० की स्वोपज्ञवृत्ति ।
(ले० भावप्रभसूरि, प्र० झवेरी जीवनचन्द साकरचन्द्र)