SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 513
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा जातिसम्पन्न, कुलसम्पन्न, विनयसम्पन्न, ज्ञानसम्पन्न, दर्शनसम्पन्न, चरणसम्पन्न, क्षान्त, दान्त, अमायी और अपश्चात्तापी दस गुणों से युक्त होता है। साथ ही आलोचना के दोष, तद्विषयभूत द्रव्य आदि प्रायश्चित्त देने की विधि आदि पर भी भाष्यकार ने चिन्तन किया है । xx परिहारतप के वर्णन में सेवा का विश्लेषण किया गया है और सुभद्रा व मृगावती के उदाहरण भी दिये गये हैं। आरोपणा के प्रस्थापनिका स्थापिता, कृत्स्ना, अकृत्स्ना और हाडहडा ये पाँच प्रकार बताये हैं तथा इन पर विस्तार से चर्चा की है । शिथिलता के कारण गच्छ का परित्याग कर पुनः गच्छ में सम्मि लित होने के लिए विविध प्रकार के प्रायश्चित्तों का वर्णन है। पार्श्वस्थ, यथाच्छन्द, कुशील, अवसन्न और संसवत के स्वरूप पर प्रकाश डाला है। श्रमणों के विहार की चर्चा करते हुए एकाकी विहार का निषेध किया है और उनके लगने वाले दोषों का निरूपण किया है। विविध प्रकार के तपस्वी व व्याधियों से संत्रस्त श्रमण-श्रमणियों की सेवा का विधान करते हुए क्षिप्तचित्त और दीप्तचित्त की सेवा करने की मनोवैज्ञानिक पद्धति पर प्रकाश डाला है । क्षिप्तचित्त के राग, भय और अपमान ये तीन कारण हैं। दीप्तचित्त का कारण सम्मान है । सम्मान होने पर उसमें मद पैदा होता है । शत्रुओं को पराजित करने के कारण वह मद से उन्मत्त होकर दीप्तचित्त हो जाता है। क्षिप्तचित्त और दीप्तचित्त में मुख्य अन्तर यह है कि क्षिप्तचित्त प्रायः मौन रहता है और दीप्तचित्त बिना किसी प्रयोजन के भी बोलता रहता है । भाष्यकार ने गणावच्छेदक, आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक स्थविर, प्रवर्तिनी आदि पदवियों को धारण करने वाले की योग्यताओं पर विचार किया है। जो ग्यारह अंगों के ज्ञाता हैं, नवम पूर्व के ज्ञाता हैं, कृतयोगी हैं, बहुश्रुत हैं, बहुत आगमों के परिज्ञाता हैं, सूत्रार्थं विशारद हैं, धीर हैं, श्रुत निघर्ष हैं, महाजन हैं वे विशिष्ट व्यक्ति ही आचार्य आदि विशिष्ट पदवियों को धारण कर सकते हैं। श्रमणों के विहार सम्बन्धी नियमोपनियमों पर विचार करते हुए कहा है कि आचार्य, उपाध्याय आदि पदवीधरों को कम से कम कितने सन्तों के साथ रहना चाहिए, आदि । विविध विधि-विधानों का निरूपण
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy