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________________ आगमों का व्याख्यात्मक साहित्य ४८३ में जाते थे। उस युग में अनेक प्रकार के सिक्के प्रचलित थे। भाष्य में बृहत्कल्प, नन्दीसूत्र, सिद्धसेन और गोविन्द वाचक आदि के नामों का उल्लेख हुआ है । व्यवहारभाष्य हम पूर्व ही बता चुके हैं कि व्यवहारभाष्य के रचयिता का नाम अभी तक ज्ञात नहीं हो सका है। बृहत्कल्पभाष्य के समान ही इस भाष्य में भी निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थिनियों के आचार-विचार पर प्रकाश डाला है । सर्वप्रथम पीठिका में व्यवहार, व्यवहारी एवं व्यवहर्तव्य के स्वरूप की चर्चा की गई है। व्यवहार में दोष लगने की दृष्टि से प्रायश्चित्त का अर्थ, भेद, निमित्त, अध्ययन विशेष, तदर्हपर्षद आदि का विवेचन किया गया है। और विषय को स्पष्ट करने के लिए अनेक दृष्टान्त भी दिये गये हैं। इसके पश्चात् भिक्षु, मास, परिहार, स्थान, प्रतिसेवना, आलोचना आदि पदों पर निक्षेप दृष्टि से चिन्तन किया है । आधाकर्म से सम्बन्धित, अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार के लिए पृथक-पृथक प्रायश्चित्त का विधान है। मूलगुण और उत्तरगुण इन दोनों की विशुद्धि प्रायश्चित्त से होती है। अतिक्रम के लिए मासगुरु, व्यतिक्रम के लिए मासगुरु और काललघु, अतिचार के लिए तपोगुरु और कालगुरु और अनाचार के लिए चतुर्गुरु प्रायश्चित्त का विधान है । पिण्डविशुद्धि, समिति, भावना, तप, प्रतिमा और अभिग्रह ये सभी उत्तरगुण में हैं। इनके क्रमशः बयालीस, आठ, पच्चीस, बारह, बारह और चार भेद होते हैं। प्रायश्चित्त करने वाले पुरुष के निर्गत और वर्तमान ये दो प्रकार हैं। जो तपोहे प्रायश्चित्त से अतिक्रान्त हो गये हैं वे निर्गत हैं और जो विद्यमान हैं वे वर्तमान हैं। उनके भी भेद-प्रभेद किये गये हैं । प्रायश्चित्त के योग्य पुरुष चार प्रकार के होते हैं- (१) उभयतरजो स्वयं तप की साधना करता हुआ भी दूसरों की सेवा कर सकता है। (२) आत्मतर - जो केवल तप ही कर सकता है । (३) परतर -- जो केवल सेवा ही कर सकता है । (४) अन्यतर - जो तप और सेवा दोनों में से किसी एक समय में एक का ही सेवन कर सकता है। आलोचना आलोचना और आलोचक के बिना नहीं होती। आलोचना स्वयं आचारवान, आधारवान, व्यवहारवान, अपव्रीडक, प्रकुर्वी, निर्यापक, अपायदर्शी और अपरिश्रावी इन गुणों से युक्त होता है। आलोचक भी
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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