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________________ ४८. जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा 'जागरह नरा विच्चं, जागरमाथस्स बढते बुद्धि। . सो सुवति न सोधण्णं, जो जग्गति सो सया पणो ॥ शील और लज्जा ही नारी का भूषण है। हार आदि आभूषणों से नारी का शरीर विभूषित नहीं हो सकता। उसका भूषण तो शील और लज्जा ही है। सभा में संस्कार रहित असाधुवादिनी वाणी प्रशस्त नहीं कही जा सकती। इस प्रकार प्रस्तुत भाष्य में श्रमणों के आचार-विचार का ताकिक दृष्टि से बहुत ही सूक्ष्म विवेचन किया गया है। उस युग की सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनीतिक स्थितियों पर भी खासा अच्छा प्रकाश पड़ता है। अनेक स्थलों पर मनोवैज्ञानिक दृष्टि से सुन्दर विश्लेषण हुआ है। जैन साहित्य के इतिहास में ही नहीं अपितु भारतीय साहित्य में इस ग्रन्थ रत्न का अपूर्व और अनूठा स्थान है। पञ्चकल्पमहाभाष्य - आचार्य संघदासगणी की दूसरी कृति पञ्चकल्पमहाभाष्य है जो पञ्चकल्पनियुक्ति के विवेचन के रूप में है। इसमें कुल २६५५ गाथाएँ हैं। जिसमें भाष्य की २५७४ गाथाएँ हैं।। इसमें पहले जिनकल्प और स्थविरकल्प ये दो भेद किये हैं। श्रमणों के ज्ञान, दर्शन और चारित्र की विविध सम्पदा का वर्णन करते हुए चारित्र के सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसंपराय और यथाख्यात ये पांच प्रकार बताये हैं। चारित्र-क्षायिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक रूप से तीन प्रकार का है। ज्ञान-क्षायिक और क्षायोपशमिक के रूप से दो प्रकार का है और दर्शन-क्षायिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक रूप से तीन प्रकार का है। चारित्र का पालन निर्ग्रन्थ करते हैं। निर्ग्रन्थ के पुलाक, बकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक ये पांच भेद हैं। कल्प शब्द पर चिन्तन करते हुए उसके निम्न अर्थ बताये हैंसामर्थ्य, वर्णनाकाल, छेदन, करण, औपम्य और अधिवास ।' १ सामत्थे वण्णणा काले छेयणे करणे तहा । ओवम्मे अहिवासे य कप्पसद्दो वियाहिओ।। -पञ्चकल्पभाष्य, गाथा १५४
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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