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आगमों का व्याख्यात्मक साहित्य ४७६ उतना ही तीव्र कर्मबंधन होगा। हिंसक में ज्ञान और अज्ञान के कारण कर्मबंध, अधिकरण की विविधता से कर्मबंध में वैविध्य आदि पर चिन्तन किया गया है।
चतुर्थ उद्देशक में हस्तकर्म आदि के प्रायश्चित्त का विधान है। मैथुनभाव रागादि से कभी भी रहित नहीं हो सकता । अतः उसका अपवाद नहीं है । पण्डक आदि को प्रव्रज्या देने का निषेध किया गया है।
पञ्चम उद्देशक में गच्छ सम्बन्धी, शास्त्र स्मरण और तद्विषयक व्याघात, क्लेशयुक्त मन से गच्छ में रहने से अथवा स्वगच्छ का परित्याग कर अन्य गच्छ में चले जाने से लगने वाले दोष और उनका प्रायश्चित्त; निःशंक और सशंक रात्रिभोजन, उद्गार-वमन आदि विषयक दोष और उसका प्रायश्चित्त; आहार आदि के लिए प्रयत्न आदि पर प्रकाश डाला गया है। श्रमणियों के लिए विशेष रूप से विधि-विधान बताये गये हैं।
षष्ठम उद्देशक में निर्दोष वचनों का प्रयोग और मिथ्या वचनों का अप्रयोग, प्राणातिपात आदि के प्रायश्चित्त; कण्टक के उद्धरण, विपर्यासजन्य दोष, प्रायश्चित्त, अपवाद का वर्णन है। श्रमण-श्रमणियों को विषम मार्ग से नहीं जाना चाहिए। जो निग्रन्थी विक्षिप्त चित्त हो गई है उसके कारणों को समझकर, उसके देख-रेख की व्यवस्था और चिकित्सा आदि के विधि-निषेधों का विवेचन किया गया है। श्रमणों के लिये छह प्रकार के परिमन्थ-व्याघात माने गये हैं-(१) कौत्कूचिक, (२) मौखरिक, (३) चक्षुर्लोल, (४) तितिणिक, (५) इच्छालोम, (६) भिज्जानिदानकरणइनका स्वरूप, दोष और अपवाद आदि पर चिन्तन किया है। - कल्पस्थितिप्रकृत में छह प्रकार की कल्पस्थितियों पर विचार किया है-(१) सामायिक कल्पस्थिति, (२) छेदोपस्थापनीय कल्पस्थिति, (२) निविशमानकल्पस्थिति, (४) निविष्टकायिककल्पस्थिति, (५) जिनकल्पस्थिति, (६) स्थविरकल्पस्थिति । छेदोपस्थापनीय कल्पस्थिति के आचेलक्य, ओद्देशिक आदि दस कल्प हैं। उसके अधिकारी और अनधिकारी पर भी चिन्तन किया गया है।
प्रस्तुत भाष्य में यत्र-तत्र सुभाषित बिखरे पड़े हैं, यथा-हे मानवो सदा-सर्वदा जाग्रत रहो, जाग्रत मानव की बुद्धि का विकास होता है जो जागता है वह सदा धन्य है