SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 507
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४७८ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा तो उसे लेकर आचार्य आदि को प्रदान करे और उनकी आज्ञा प्राप्त होने पर उसका उपयोग करे । रात्रिभक्तप्रकृतसूत्र में बताया है कि रात्रि या विकाल में अशनपान आदि ग्रहण नहीं करना चाहिए और न वस्त्र आदि ही ग्रहण करना चाहिए। रात्रि और विकाल में अध्वगमन का भी निषेध किया गया है । अध्व के दो भेद हैं-पंथ और मार्ग । जिसके बीच में ग्राम, नगर आदि कुछ भी न आए वह पंथ है और जिसके बीच ग्राम, नगर आये वह मार्ग है। साथ के भंडी, बहिलक, भारवह, औदरिक, कार्पेटिक ये पाँच प्रकार हैं। आठ प्रकार के सार्थवाह और आठ प्रकार के सार्थ व्यवस्थापकों का उल्लेख है । विहार के लिए आर्यक्षेत्र ही विशेष रूप से उपयुक्त है । आर्य पद पर नाम आदि बारह निक्षेपों से विचार किया है। आर्य जातियाँ अम्बष्ठ, कलिन्द, वैदेह, विदक, हारित, तन्तुण ये छह हैं और आर्य कुल भी उग्र, भोग, राजन्य, क्षत्रिय, ज्ञात कौरव और इक्ष्वाकु यह छह प्रकार के हैं। आगे उपाश्रय सम्बन्धी विवेचन में उपाश्रय के व्याघातों पर विस्तार से प्रकाश डाला है । जिसमें शालि ब्रीहि आदि सचित्त धान्य कण बिखरे हुए हों उस बीजाकीर्ण स्थान पर श्रमण को नहीं रहना चाहिए और न सुराविकट कुंभ, शीतोदक विकट कुंभ, ज्योति, दीपक, पिण्ड, दुग्ध, दही, नवनीत आदि पदार्थों से युक्त स्थान पर ही रहना चाहिए। सागारिक के आहार आदि त्याग की विधि, अन्य स्थान से आई हुई भोजन सामग्री के दान की विधि, सागारिक का पिण्ड ग्रहण, विशिष्ट व्यक्तियों के निमित्त बनाया हुआ भक्त, उपकरण आदि का ग्रहण, रजोहरण ग्रहण करने की विधि बताई है। पाँच प्रकार के वस्त्र(१) जौगिक (२) भांगिक (३) सानक, (४) पोतक (५) तिरीटपट्टक, पाँच प्रकार के रजोहरण -- (१) औणिक, (२) औष्ट्रिक, (३) सानक, (४) वच्चकचिप्पक, (५) मुंजचिपक - इनके स्वरूप और ग्रहण करने की विधि बताई गई है | तृतीय उद्देशक में निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों के परस्पर उपाश्रय में प्रवेश करने की विधि बतायी है। कृत्स्न और अकृत्स्न, भिन्न और अभिन्न, वस्त्रादि ग्रहण, नवदीक्षित श्रमण श्रमणियों के उपधि पर चिन्तन किया है। उपधिग्रहण की विधि, वन्दन आदि का विधान किया है। वस्त्र फाड़ने में होने वाली हिंसा-अहिंसा पर चिन्तन करते हुए द्रव्यहिंसा और भावहिंसा पर विचार किया है। हिंसा में जितनी अधिक राग आदि की तीव्रता होगी
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy