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आगमों का व्याख्यात्मक साहित्य ४७७ और बाहर दो भागों में विभक्त हों तो अन्दर और बाहर मिलाकर दो मास तक रह सकते हैं।
श्रमणियों के आचार सम्बन्धी विधि-विधानों पर विस्तार से प्रकाश डालते हए बताया है कि निग्रंथी के मासकल्प की मर्यादा, विहार-विधि, समुदाय का प्रमुख और उसके गुण, उसके द्वारा क्षेत्र की प्रतिलेखना, बौद्ध श्रावकों द्वारा भडौंच में श्रमणियों का अपहरण, श्रमणियों के योग्य क्षेत्र, वसति, विधर्मी से उपद्रव की रक्षा, भिक्षा हेतु जाने वाली श्रमणियों की संख्या, वर्षावास के अतिरिक्त श्रमणी को एक स्थान पर अधिक से अधिक कितना रहना, उसका विधान है।
स्थविरकल्प और जिनकल्प इन दोनों अवस्थाओं में कौन सी अवस्था प्रमुख है इस पर चिन्तन करते हए भाष्यकार ने निष्पादक और निष्पन्न इन दोनों दृष्टियों से दोनों की प्रमुखता स्वीकार की है। सूत्र अर्थ आदि दृष्टियों से स्थविरकल्प जिनकल्प का निष्पादक है। जिनकल्प ज्ञानदर्शन-चारित्र प्रभृति दृष्टियों से निष्पन्न है। विषय को स्पष्ट करने की दृष्टि से गुहासिंह, दो महिलाएं और दो गोवर्गों के उदाहरण प्रस्तुत किए हैं।
एक प्राचीर और एक द्वार वाले ग्राम-नगर आदि में निर्ग्रन्थनिग्रंन्थियों को नहीं रहना चाहिए इस सम्बन्ध में विस्तार से विवेचन किया है। श्रमण-श्रमणियों को किस स्थान में रहना चाहिए इस पर विविध दृष्टियों से चिन्तन किया गया है।
व्यवशमनप्रकृतसूत्र में इस बात पर चिन्तन किया है कि श्रमणों में परस्पर वैमनस्य हो जाये तो उपशमन धारण करके क्लेश को शान्त करना चाहिए। जो उपशमन धारण करता है वह आराधक है; जो नहीं करता है वह विराधक है। आचार्य को श्रमण-श्रमणियों में क्लेश होने पर उसकी उपशान्ति हेतु उपेक्षा करने पर प्रायश्चित्त का विधान है। परस्पर के झगड़े को शान्त करने की विधि प्रतिपादित की गई है।
चारप्रकृतसूत्र में बताया है कि श्रमण-श्रमणियों को वर्षाऋतू में एक गांव से दूसरे गाँव नहीं जाना चाहिए। यदि गमन करता है तो उसे प्रायश्चित्त आता है। यदि आपवादिक कारणों से विहार करने का प्रसंग उपस्थित हो तो उसे यतना से गमन करना चाहिए।
अवग्रहसूत्र में बताया है कि भिक्षा या शोचादि भूमि के लिए जाते हुए श्रमण को गृहपति वस्त्र, पात्र, कम्बल आदि ग्रहण करने की प्रार्थना करे