________________
४७६
जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा
व कठिनता का परिज्ञान, विहार करने से पूर्व वसति के अधिपति की अनुमति, विहार करने से पूर्व शुभशकून देखना आदि का वर्णन है।
स्थविरकल्पिकों की सामाचारी में इन बातों पर प्रकाश डाला है
(१) प्रतिलेखना-वस्त्र आदि की प्रतिलेखना का समय, प्रतिलेखना के दोष और उनका प्रायश्चित्त।
(२) निष्क्रमण-उपाश्रय से बाहर निकलने का समय।।
(३) प्राभूतिका-गृहस्थ के लिए जो मकान तैयार किया है उसमें रहना चाहिए या नहीं रहना चाहिए। तत्सम्बन्धी विधि व प्रायश्चित्त ।
(४) भिक्षा-भिक्षा के लेने का समय और भिक्षा सम्बन्धी आवश्यक वस्तुएँ।
(५) कल्पकरण-पात्र को स्वच्छ करने की विधि, लेपकृत और अलेपकृत पात्र, पात्र-लेप से लाभ।
(६) गच्छशतिकावि-आधार्मिक, स्वगृहयतिमिश्र, स्वगृहपाषण्डमिश्र, यावदर्थिकमिश्र, क्रीतकृत, पूतिकर्मिक और आत्मार्थकृत तथा उनके अवान्तर भेद।
(७) अनुयान-रथयात्रा का वर्णन और उस सम्बन्धी दोष ।
(5) पुरःकर्म-भिक्षा लेने से पूर्व सचित्त जल से हाथ आदि साफ करने से लगने वाले दोष ।
(8) ग्लान-ग्लान-रुग्ण श्रमण की सेवा से होने वाली निर्जरा, उसके लिए पथ्य की गवेषणा, चिकित्सा के लिए वैद्य के पास ले जाने की विधि, वैद्य से वार्तालाप करने का तरीका, रुग्ण श्रमण को उपाश्रय, गली आदि में छोड़कर चले जाने वाले आचार्य को लगने वाले दोष, और उनके प्रायश्चित्त का विधान।
(१०) गच्छ प्रतिबद्ध यवालंदिक-वाचना आदि कारणों से गच्छ से सम्बन्ध रखने वाले यथालंदिक कल्पधारियों के साथ वन्दन आदि व्यवहार तथा मासकल्प की मर्यादा।
(११) उपरिदोष-वर्षाऋतु के अतिरिक्त समय में एक क्षेत्र में एक मास से अधिक रहने से लगने वाले दोष ।
(१२) अपवाद-एक क्षेत्र में एक मास से अधिक रहने के आपवादिक कारण, श्रमण-श्रमणियों के भिक्षाचर्या की विधि पर भी प्रकाश डाला है। साथ ही यह भी बताया है कि यदि ग्राम, नगर आदि दुर्ग के अन्दर