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आगमों का व्याख्यात्मक साहित्य ४७१
नहीं सकता। इसलिए जहाँ तक तीर्थ की अवस्थिति है वहाँ तक प्रायश्चित्त का भी विधान है ।
इसी प्रायश्चित्त के प्रसंग में भक्तपरिज्ञा, इंगिनीमरण और पादपोपगमन इन तीन प्रकार की मारणान्तिक साधनाओं पर विस्तार डाला गया है।
प्रकाश
आज्ञाव्यवहार के संबंध में बताया है कि दो गीतार्थ आचार्य भिन्नभिन्न देशों में हों, वे कारणवश मिलने में असमर्थ हों, ऐसी परिस्थिति में कहीं पर प्रायश्चित्त आदि के सम्बन्ध में एक-दूसरे से परामर्श अपेक्षित हो तो वे अपने शिष्यों को गूढपदों में पुष्टव्य विषय को निगूहित कर उनके पास भेज देते हैं । वे गीतार्थ आचार्य भी उसी शिष्य के साथ गूढपदों में ही उत्तर प्रेषित कर देते हैं। यह आज्ञाव्यवहार है।
धारणा व्यवहार वह है कि किसी गीतार्थ आचार्य ने किसी समय किसी शिष्य के अपराध की शुद्धि के लिए जो प्रायश्चित्त दिया हो, उसे स्मरण रखकर वैसी ही परिस्थिति में उसी प्रायश्चित्त विधि का उपयोग करना; अथवा वैयावृत्य, आदि विशेष प्रवृत्ति में और अशेष छेदसूत्रों को धारण करने में असमर्थ साधु को कुछ विशेष विशेष पद उद्धृत कर धारणा करवाने को धारणा व्यवहार कहा जाता है । उद्धारणा, विधारणा, संधारणा, संप्रधारणा ये धारणा के पर्यायवाची हैं ।
जीतव्यवहार वह है कि किसी समय किसी अपराध के लिए आचार्यो ने एक प्रकार का प्रायश्चित्त विधान किया है; दूसरे समय में देश-काल, घृति, संहनन, बल आदि देखकर उसी अपराध के लिए दूसरे प्रकार का प्रायश्चित्तविधान किया जाता है । अथवा किसी आचार्य के गच्छ में किसी कारणवश कोई सूत्रातिरिक्त प्रायश्चित्त का प्रवर्तन हुआ हो और वह बहुतों द्वारा अनेक बार अनुवर्तित हुआ, उस प्रायश्चित्त-विधि को जीत कहा गया है । जिसका आधार आगम, श्रुत, आज्ञा और धारणा न हो वह जीतव्यवहार है। उसका मूल आधार परम्परा होती है। जिस जीतव्यवहार से चारित्र की निर्मलता होती हो उसी का आचरण करना चाहिए। ऐसा भी जीतव्यवहार हो सकता है जिसका आचरण केवल एक ने ही किया हो, पर जिसने किया हो वह व्यक्ति शान्त, दान्त, गंभीर, संवेग परायण हो, और वह आचार को विशुद्ध करने वाला हो तो उस जीतव्यवहार का अनुसरण किया जा सकता है। यहाँ तक मूलसूत्र की प्रथम गाथा का विवेचन हुआ ।