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जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा
आगम व्यवहारी आचार्य के आठ प्रकार की सम्पदा होती हैआचार, श्रुत, शरीर, वचन, वाचना, मति, प्रयोगमति और संग्रहपरिज्ञा। प्रत्येक के चार-चार प्रकार हैं। इस तरह इसके ३२ प्रकार होते हैं।
चार विनय प्रतिपत्तियाँ हैं(१) आचारविनय-आचार सम्बन्धी विनय सिखाना । (२) श्रुतविनय-सूत्र और अर्थ की वाचना देना।
(३) विक्षेपणाविनय-जो धर्म से दूर हैं, उन्हें धर्म में स्थापित करना, जो स्थित हैं उन्हें प्रबजित करना, जो च्युतधर्मा हैं उन्हें पुन: धर्मनिष्ठ बनाना और उनके लिए हित सम्पादन करना ।
(४) दोषनिर्धातविनय-क्रोध-विनयन, दोषविनयन तथा कांक्षाविनयन के लिए प्रयत्न करना।
___ इन ३६ गुणों में कुशल, आलोचनार्ह आठ गुणों से युक्त, अठारह वर्णनीय स्थानों का ज्ञाता, दस प्रकार के प्रायश्चित्तों को जानने वाला, आलोचना के दस दोषों का जानकार, व्रतषट्क, कायषट्क का विज्ञाता तथा जातिसम्पन्न प्रभृति दस गुणों से जो युक्त है वह आगम व्यवहारी है।
___ प्रायश्चित्त प्रदान करने वाले केवलज्ञानी व पूर्वधर वर्तमान में नहीं हैं और न प्रत्याख्यानप्रवाद नामक पूर्व की तीसरी वस्तु ही है किन्तु उस पूर्व के आधार से निर्मित बृहत्कल्प, व्यवहार आदि वर्तमान में उपलब्ध हैं। उन आगम ग्रन्थों के आधार से प्रायश्चित्त का विधान सहज रूप से किया जा सकता है और चारित्र की विशुद्धि की जा सकती है। बृहत्कल्प और व्यवहार के सूत्र और अर्थ को निपुणता से जानकर जो प्रायश्चित्त दिया जाता है वह श्रुत व्यवहार है।
. भाष्य में प्रायश्चित्त के सम्बन्ध में बताया है कि सापेक्ष प्रायश्चित्त दान से लाभ और निरपेक्ष प्रायश्चित्त दान से हानि की संभावना है। जिसे प्रायश्चित्त देना हो उसकी शक्ति का ध्यान होना चाहिए। यदि ध्यान न रखा गया लो संयम में स्थिर होने के स्थान पर सर्वथा त्याग का प्रसंग उपस्थित हो सकता है। प्रायश्चित्त देते समय इतना भी दयालु नहीं होना चाहिए कि प्रायश्चित्त का विधान ही नष्ट हो जाए और दोषों की परम्परा निरन्तर बढ़ती ही चली जाय। बिना प्रायश्चित्त के चारित्र की शुद्धि नहीं हो सकती, बिना चारित्र शुद्धि के निर्वाण प्राप्त नहीं हो सकता और निर्वाण प्राप्ति के अभाव में कोई भी श्रमण नहीं बनेगा। बिना श्रमण बने तीर्थ चल