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________________ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा प्रथम निह्नव जमालि ने बहुरत मत का प्ररूपण किया। द्वितीय निह्नव तिष्यगुप्त ने जीव प्रादेशिक मत का प्ररूपण किया । तृतीय निह्नव आचार्य आषाढ़ द्वारा अव्यक्तमत की संस्थापना की गई। चतुर्थं निह्नव अश्वमित्र ने सामुच्छेिदिक विचारधारा का प्रचार किया । पञ्चम निव गंग ने एक समय में दो क्रियाओं का अनुभव हो सकता है इसका प्रतिपादन किया । षष्ठ निह्नव रोहगुप्त षडुलुक ने त्रैराशिक मत का प्ररूपण किया । सप्तम निह्नव गोष्ठामाहिल ने कहा- जीव और कर्म का बंध नहीं होता किन्तु स्पर्शमात्र होता है अत: उसने अबद्ध सिद्धान्त का प्ररूपण किया । अष्टम निह्न बोटिक द्वारा दिगम्बर मत प्रचलित हुआ । भगवान महावीर के केवलज्ञान होने के १४ वर्ष पश्चात् प्रथम निलव हुआ, सोलह वर्ष पश्चात् द्वितीय निह्नव हुआ। शेष निह्नव क्रमश: महावीर निर्वाण के २१४, २२०, २२८,५४४, ५८४ और ६०६ वर्ष पश्चात् हुए । ४६८ निह्नववाद के पश्चात् सामायिक के अनुमत आदि द्वारों का वर्णन किया गया है। उसके पश्चात् सूत्रस्पर्शिक नियुक्ति का व्याख्यान है । इसमें नमस्कार की उत्पत्ति, निक्षेप, पद, पदार्थ, प्ररूपणा, वस्तु, आक्षेप, प्रसिद्धि, क्रम, प्रयोजन और फल इन ग्यारह द्वारों से नमस्कार का विवेचन किया है। सिद्धों को नमस्कार करते समय आचार्य ने कर्मस्थिति, समुद्घात, शैलेशी अवस्था, ध्यान और उसके स्वरूप पर चिन्तन किया है। सिद्ध का उपयोग साकार है या निराकार है। साकार का अर्थ ज्ञान है और निराकार का अर्थ दर्शन है । साकार का अर्थ सविकल्प है और निराकार का अर्थ निर्विकल्प है । जो उपयोग वस्तु के विशेष अंश को ग्रहण करता है वह सविकल्प है और जो उपयोग सामान्य अंश को ग्रहण करता है वह निर्विकल्प है । केवलज्ञान और केवलदर्शन के भेद और अभेद पर चिन्तन किया है। केवलज्ञान और केवलदर्शन युगपत् होते हैं या क्रमशः होते हैं। इस प्रश्न पर आगमिक दृष्टि से चिन्तन करते हुए इस मत की पुष्टि की है कि केवली को एक साथ दो उपयोग नहीं हो सकते। केवलज्ञान और केवलदर्शन क्रमशः होते हैं, युगपत् नहीं । सिद्ध सम्बन्धी अन्य आवश्यक बातों पर भी प्रकाश डाला है। आचार्य, उपाध्याय और साधु की भी नमस्कार किया गया है। इसके पश्चात् 'करेमि भंते' आदि सामायिक सूत्र के मूल पदों पर विचार किया गया है।
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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