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________________ आगमों का व्याख्यात्मक साहित्य ४६७ लोक का अस्तित्व, निर्वाण की सिद्धि ।' सभी विज्ञों के संशय नष्ट होने पर वे सभी अपने शिष्यों के साथ भगवान के शिष्य हो गये । वे ग्यारह ही प्रमुख शिष्य गणधर के नाम से विश्रुत हुए। भाष्य में यह चर्चा बहुत ही विस्तार से की गई है। सामायिक के ग्यारहवें द्वार समवतार पर विवेचन करते हए आचार्य ने चरणकरणानुयोग, धर्मकथानुयोग, गणितानुयोग और द्रव्यानयोग के पृथक्करण की चर्चा की और इस बात पर प्रकाश डाला कि आर्य वन के पश्चात् आर्य रक्षित ने भविष्य में होने वाले श्रमणों की मति, मेधा-धारणा क्रमशः कम होगी अतः अनुयोगों का पृथक्करण किया। उन्होंने सूत्रों का निश्चित विभाजन कर दिया। चरणकरणानुयोग में कालिकश्रुत रूप ग्यारह अंग महाकल्पश्रुत और छेदसूत्र रखे । धर्मकथानुयोग में ऋषिभाषित को रखा गया। गणितानुयोग में सूर्य प्रज्ञप्ति, और द्रव्यानुयोग में दृष्टिवाद को रखा गया। उसके पश्चात् पुष्यमित्र को आचार्य का महत्त्वपूर्ण पद प्रदान किया। जिसे गोष्ठामाहिल ने अपना अपमान समझा और संघ से पृथक होकर अपनी नई मान्यताओं का प्रचार प्रारम्भ किया। यही गोष्ठामाहिल सप्तम निह्नव के रूप में विश्रुत हुआ। जमालि, तिष्यगुप्त, आषाढ़भूति, अश्वमित्र, गंग, रोहगुप्त षडुलूक, गोष्ठामाहिल इन निह्नवों का वर्णन नियुक्ति में भी आया है किन्तु भाष्यकार ने आठवें निह्नव शिवभूति बोटिक का भी वर्णन किया है। अभिनिवेश के कारण आगम-प्रतिपादित तत्त्व का परम्परा से प्रतिकूल अर्थ करने वाला निह्नव में परिगणित किया गया है। निह्नव मिथ्यादृष्टि का ही एक प्रकार है। बिना अभिनिवेश के जो सूत्रार्थ में वाद-विवाद होता है उसके कारण निह्नव नहीं होता क्योंकि उसके वाद-विवाद का लक्ष्य सत्यतथ्य का उद्घाटन है न कि अपने मिथ्या अहंकार का पोषण है। सामान्य मिथ्यात्वी और निह्नव में यह अन्तर है कि सामान्य मिथ्यात्वी तो जिनेश्वर देवों के वचनों को मानता ही नहीं है, यदि मानता भी है तो उन्हें मिथ्या मानता है। किन्तु निह्नव जिन प्रवचन को मानता तो है पर अपने अभिनिवेश के कारण किसी एक विषय का परम्परा के विरुद्ध अर्थ करता है। १ देखिये--भगवान महावीर की दार्शनिक चर्चाएँ : लेखक-देवेन्द्र मुनि
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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