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जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा
की स्थिति देशन्यून कोटाकोटी सागरोपम की अवशेष रहती है तब आत्मा सम्यक्त्व के अभिमुख होता है, उसे सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है, उसमें से पल्योपम पृथक्त्व का क्षय होने पर देशविरति श्रावकत्व की प्राप्ति होती है । उसमें से भी संख्यात सागरोपम का क्षय होने पर सर्वविरति चारित्र की उपलब्धि होती है । उसमें से संख्यात सागरोपम का क्षय होने पर उपशमश्रेणी प्राप्त होती है । उसमें से भी संख्यात सागरोपम का क्षय होने पर क्षपकश्रेणी प्राप्त होती है।
कषाय के उदय के कारण दर्शन आदि सामायिक प्राप्त नहीं हो सकती । यदि कदाचित् प्राप्त भी हो गयी है तो वह पुनः नष्ट हो जाती है । कषाय में कष् और आय ये दो शब्द हैं। जिससे कर्मों का लाभ हो वह कषाय है । अनन्तानुबन्धी चतुष्क, अप्रत्याख्यानी चतुष्क, प्रत्याख्यानी चतुष्क इन बारह प्रकार के कषायों का क्षय, उपशम या क्षयोपशम होने से चारित्र की प्राप्ति होती है। प्रथम चारित्र सामायिक है। सामायिक में सावद्ययोग का त्याग होता है । वह इत्वर और यावत्कथिक के रूप में दो प्रकार की है । इत्वर सामायिक अल्पकालीन होती है और यावत्कथिक जीवन पर्यन्त के लिए होती है। भाष्यकार ने सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसम्पराय और यथाख्यात चारित्र का विस्तार से विवेचन किया है ।
सामायिकचारित्र का उद्देश, निर्देश, निर्गम क्षेत्र, काल, पुरुष, कारण, प्रत्यय, लक्षण, नय, समवतार, अनुमत, किम्, कतिविधि, कस्य, कुत्र, केषु कथम्, कियच्चिर, कति सान्तर, अविरहित, भव, आकर्ष, स्पर्शन और निरुक्ति- इन छब्बीस द्वारों से वर्णन किया है। सामायिक सम्बन्धी जितनी भी महत्त्वपूर्ण बातें हैं वे सभी इन द्वारों में समाविष्ट हो गई हैं ।
तृतीय निर्गम द्वार में सामायिक की उत्पत्ति के सम्बन्ध में विचार करते हुए आचार्य ने भगवान महावीर के ग्यारह गणधरों की चर्चा की है। ग्यारह गणधरों के नाम ये हैं- इन्द्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति, व्यक्त, सुधर्मा, माडिक, मौर्यपुत्र, अकंपित, अचलभ्राता, मेतार्य और प्रभास । ये सभी वेदों के पारंगत विद्वान थे। उन्होंने भगवान से निम्न विषयों पर चर्चाएँ कीं
आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व, कर्म की सत्ता, आत्मा और देह का भेद, शून्यवाद का निरसन, इहलोक और परलोक की विचित्रता, बंध और मोक्ष का स्वरूप, देवों का अस्तित्व, नारकों का अस्तित्व, पुण्य-पाप का स्वरूप, पर