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________________ आगमों का व्याख्यात्मक साहित्य ४६५ नियुक्ति की परिभाषा इस प्रकार प्रस्तुत की कि सूत्र के निश्चित अर्थ की व्याख्या करना नियुक्ति है। जिन अर्थभाषक हैं, गणधर सूत्र रचयिता हैं। शासन के हितार्थ सत्र की प्रवृत्ति है। सूत्र में अर्थ-विस्तार विशेष है अत: वह महार्थ है। सामायिक श्रुत का सार चारित्र है। चारित्र ही मुक्ति का साक्षात् कारण है। ज्ञान से वस्तु का यथार्थ परिज्ञान होने से चारित्र की विशुद्धि होती है। केवलज्ञान होने पर भी जीव मुक्त नहीं होता जब तक उसे सर्वसंवर का लाभ न हो जाये । चारित्र ही मोक्ष का मुख्य हेतु है। सामायिक का लाभ जीव को कब उपलब्ध होता है इस पर चिन्तन करते हुए लिखा है कि आठों कर्म प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति के रहते हए जीव को सामायिक का लाभ नहीं हो सकता। नाम-गोत्र की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोटाकोटी सागरोपम है। मोहनीय की सत्तर कोटाकोटी सागरोपम है । ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय की तीस कोटाकोटी सागरोपम है। आयुकर्म की तेतीस सागरोपम है। मोहनीयकर्म की उत्कृष्ट स्थिति का बंध होने पर ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, नाम, गोत्र और अन्तराय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति बंधती है। किन्तु आयुकर्म की स्थिति के लिए निश्चित नियम नहीं है, उत्कृष्ट और मध्यम किसी भी प्रकार की स्थिति बँध सकती है पर जघन्य स्थिति नहीं बंधती। मोहनीय के अतिरिक्त ज्ञानावरणादि किसी भी कर्म की उत्कृष्ट स्थिति का बंध होने पर मोहनीय या अन्य कर्म की उत्कृष्ट या मध्यम स्थिति का बंध होता है किन्तु आयुकर्म की जघन्य स्थिति भी बंध सकती है। सम्यक्त्व, श्रुत, देशव्रत और सर्वव्रत इन चार सामायिकों में से जिसने उत्कृष्ट कर्मस्थिति का बंध किया है वह एक भी सामायिक को प्राप्त नहीं कर सकता, किन्तु उसे पूर्वप्रतिपन्न विकल्प से होती भी है और नहीं भी होती है, जैसे अनुत्तरविमानवासी देव में पूर्व-प्रतिपन्न सम्यक्त्व श्रुत होते हैं, शेष में नहीं। जिनकी ज्ञानावरणादि की जघन्य स्थिति है उनको भी इन चार सामायिकों में से एक का भी लाभ नहीं होता क्योंकि उसे पहले ही प्राप्त हो गई है अत: पुन: प्राप्त करने का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। आयुकर्म की जघन्य स्थिति वाले को न यह पहले प्राप्त होती है और न वह प्राप्त ही कर सकता है। इसके पश्चात् सम्यक्त्व प्राप्ति के कारणों पर चिन्तन करते हुए ग्रन्थिभेद का स्वरूप स्पष्ट किया है। आयुकर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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