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________________ ४६४ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा के बच्चे जन्म लेते ही उड़ने के स्वभाव वाले होते हैं वैसे ही भवप्रत्यय अवधिज्ञान वाले होते हैं । किन्तु मनुष्य और तिर्यंच में क्षयोपशम के कारण अवधिज्ञान उत्पन्न होता है । मनः पर्यवज्ञान में मानव के अन्तर्मानस में जो चिन्तन चलता है उसका उसे प्रत्यक्ष होता है । अर्थात् मनःपर्यवज्ञानी चिन्तित मनोद्रव्य को तो प्रत्यक्ष देखता है किन्तु उसमें प्रतिभासित बाह्य पदार्थ को अनुमान से जानता है मनः पर्यवज्ञान श्रमण को ही होता है। केवलज्ञान सर्वद्रव्य और सर्व पर्यायों को जानता है । समुदायार्थ द्वार में बताया है कि मति, अवधि, मनः पर्यव व केवलज्ञान परबोध में असमर्थ हैं किन्तु श्रुतज्ञान जगमगाते हुए दीपक की तरह स्वप्रकाशन व परबोधन में समर्थ है अतः उसी का अनुयोग यहाँ पर विवक्षित है। आवश्यक का अधिकार श्रुतरूप है। आवश्यक पर नाम आदि निक्षेपों से चिन्तन किया गया है । द्रव्यआवश्यक आगम और नोआगम रूप से दो प्रकार का है। अधिकाक्षर पाठ के लिए राजपुत्र कुणाल का उदाहरण दिया है। हीनाक्षर पाठ के लिए विद्याधर का उदाहरण दिया है। उभय के लिए बाल और आतुर के लिए अतिमात्रा में भोजन और भेषज - विपर्यय के उदाहरण दिये गये हैं । लोकोत्तर नोआगम रूप द्रव्यावश्यक के स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए साध्वाभास का दृष्टान्त देकर समझाया है । भावआवश्यक भी आगम रूप और नोआगम रूप से दो प्रकार का है। आवश्यक के अर्थ का जो उपयोग रूप परिणाम है वह आगम रूप भावावश्यक है। ज्ञानक्रिया उभय रूप जो परिणाम है वह नोआगम रूप भावावश्यक है । षडावश्यक के पर्याय और उसके अर्थाधिकार पर विचार किया है। सामायिक पर चिन्तन करते हुए कहा है-समभाव ही सामायिक का लक्षण है । जैसे अनन्त आकाश सभी द्रव्यों का आधार है वैसे ही सभी सद्गुणों का आधार सामायिक है । सामायिक के दर्शन, ज्ञान और चारित्र ये तीन भेद हैं। किसी महानगर में प्रवेश के लिए अनेक द्वार होते हैं वैसे ही सामायिक अध्ययन के उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय ये चार द्वार हैं । इन चारों द्वारों का विस्तार से निरूपण किया गया है। इसके पश्चात् उपोद्घात है। तीर्थंकरों को नमस्कार किया गया है। तीर्थ की परिभाषाएं की गई हैं। तीर्थंकरों के पराक्रम, ज्ञान, गति आदि विषयों पर प्रकाश डाला है। भगवान महावीर व गणधरों को नमस्कार कर
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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