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आगमों का व्याख्यात्मक साहित्य
हो । अथवा मंगल वह है जो धर्म का समादान कराता हो। मंगल शब्द पर निक्षेप दृष्टि से चिन्तन किया गया है।
ज्ञान भावमंगल है अत: पाँच ज्ञानों का विश्लेषण किया गया है । पांच ज्ञानों में मति और श्रुत ये दो ज्ञान परोक्ष हैं और अवधि, मनःपर्यव और केवल ये तीन प्रत्यक्ष हैं। यहाँ पर 'अक्ष' शब्द का अर्थ जीव है । जो ज्ञान सीधा जीव से उत्पन्न होता है वह प्रत्यक्ष है। जो ज्ञान द्रव्यइन्द्रिय और द्रव्यमन की सहायता से होता है वह परोक्ष है। जो इन्द्रिय, मन को अक्ष मानते हैं और उनसे समुत्पन्न ज्ञान को प्रत्यक्ष मानते हैं, यह उचित नहीं है क्योंकि इन्द्रियाँ भी घट आदि की तरह अचेतन हैं। उनसे किस प्रकार ज्ञान उत्पन्न हो सकता है । जो ज्ञान अनुमान आदि से उत्पन्न होता है वह परोक्ष ही है।
मतिज्ञान-श्रुतज्ञान के सम्बन्ध में विस्तार से चर्चा करते हुए लिखा है-जो ज्ञान इन्द्रिय मनोनिमित्तक व श्रुतानुसारी है वह भावश्रुत है और शेष मति है। मतिज्ञान के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा के भेद-प्रभेदों के साथ ताकिक दृष्टि से इस सम्बन्ध में चिन्तन किया है। अवग्रह एक समय पर्यन्त रहता है। ईहा और अवाय अन्तमुहूर्त तक रहता है और धारणा अन्तर्मुहर्त व संख्येय-असंख्येय काल तक रहती है। प्रस्तुत प्रसंग में भाषा, शरीर, समुद्घात प्रभृति विषयों पर भी प्रकाश डाला गया है।
श्रुतज्ञान पर चिन्तन करते हुए लिखा है कि लोक में जितने भी अक्षर हैं उसके उतने ही संयोग होते हैं, उतनी ही श्रुतज्ञान की प्रकृतियाँ होती हैं। संयुक्त और असंयुक्त एकाक्षरों के अनन्त संयोग होते हैं और उनमें से प्रत्येक संयोग के अनन्त पर्याय होते हैं। अक्षर, अनक्षर, संज्ञी, असंज्ञी, सम्यक, असम्यक, सादिक, अनादिक, सपर्यवसित, अपर्यवसित, गमिक, अगमिक, अंगप्रविष्ट, अंगबाह्य-इन चौदह प्रकार के निक्षेपों से श्रुतज्ञान पर विचार किया है और साथ ही उनके भेद-प्रभेदों पर भी चिन्तन किया गया है।
अवधिज्ञान के भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय ये दो मुख्य भेद हैं। उन पर चौदह प्रकार के निक्षेपों की दृष्टि से चिन्तन किया है । नारक और देव के जीवों को उस स्थान में जन्म लेते ही अवधिज्ञान हो जाता है। जैसे पक्षियों
१ 'मंग्यतेऽधिगम्यते येन हितं तेन मंगलं मवति' अथवा 'मंगो धर्मस्तं लाति तक
समादत्ते'।