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४६२ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा
(७) जीतकल्पभाष्य-प्राकृत पद्य (८) अनुयोगद्वारचूणि-प्राकृत गद्य (8) ध्यानशतक-प्राकृत पद्य ध्यानशतक के सम्बन्ध में विज्ञों में एकमत नहीं है।
विशेषावश्यकभाष्य विशेषावश्यकभाष्य जिनदासगणी की एक अत्यन्त महत्वपूर्ण रचना है । आवश्यकसूत्र पर तीन भाष्य लिखे गये हैं-(१) मूलभाष्य, (२) भाष्य और (३) विशेषावश्यकभाष्य । पहले के दो भाष्य बहुत ही संक्षेप में लिखे गये हैं, और उनकी बहुत सी गाथाएं विशेषावश्यकभाष्य में मिल गई हैं अतः विशेषावश्यकभाष्य तीनों भाष्यों का प्रतिनिधित्व करने वाला है। यह भाष्य केवल प्रथम अध्ययन सामायिक पर है। इसमें ३६०३ गाथाएं हैं।
प्रस्तुत भाष्य में जैन आगम साहित्य में वर्णित जितने भी महत्त्वपूर्ण विषय हैं उन सभी पर चिन्तन किया गया है । ज्ञानवाद, प्रमाणवाद, आचार, नीति, स्याद्वाद, नयवाद, कर्मसिद्धान्त पर विराट सामग्री का संकलनआकलन किया गया है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि जैन दार्शनिक सिद्धान्तों की तुलना अन्य दार्शनिक विचारधाराओं के साथ की गई है। इसमें जैन आगम साहित्य की मान्यताओं का तार्किक दृष्टि से विश्लेषण किया गया है। आगम के गहन रहस्यों को समझने के लिए यह भाष्य अत्यधिक उपयोगी है। परवर्ती आचार्यों ने विशेषावश्यकभाष्य की विचार सामग्री और शैली का अपने ग्रन्थों में उपयोग किया है।
सर्वप्रथम प्रवचन को नमस्कार किया है। उसके पश्चात् आवश्यक के फल के सम्बन्ध में चिन्तन करते हुए लिखा है कि ज्ञान और क्रिया दोनों से मोक्ष की प्राप्ति होती है । आवश्यक स्वयं ज्ञान-क्रिया-मय है उससे सिद्धि संप्राप्त होती है। जैसे कुशल वैद्य बालक के लिए योग्य आहार की अनुमति देता है वैसे ही भगवान ने साधकों के लिए आवश्यक की अनुमति प्रदान की है।
श्रेष्ठ कार्य में विविध विघ्न उपस्थित होते हैं। उनकी शान्ति के लिए मंगल का विधान है । ग्रन्थ में मंगल तीन स्थानों पर होता है। आदि मंगल अविघ्नपूर्वक ग्रन्थ समाप्ति के लिए है। मध्य मंगल प्रयोजन की स्थिरता के लिए है और अन्त मंगल शिष्य-प्रशिष्य आदि वंश परम्परा तक चलता रहे उसके लिए किया जाता है। मंगल वह है जिससे हित की सिद्धि होती