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________________ ४६. जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा और शास्त्र में कुशल तथा दर्शन-ज्ञानोपयोग के मार्ग-दर्शक हैं। जिस प्रकार कमल की सुमधुर सौरभ से आकर्षित होकर भ्रमर कमल की उपासना करते हैं उसी प्रकार ज्ञानरूप मकरंद के पिपासु श्रमण जिनके मुखरूप निर्झर से प्रवाहित ज्ञानरूप अमृत का सर्वथा सेवन करते हैं। स्वसमय तथा पर-समय के आगम, लिपि, गणित, छन्द और शब्दशास्त्रों पर किये गये व्याख्यानों से निर्मित जिनका अनुपम यश-पटह दसों दिशाओं में बज रहा है। जिन्होंने अपनी अनुपम बुद्धि के प्रभाव से ज्ञान, ज्ञानी, हेतु, प्रमाण तथा गणधरवाद का सविशेष विवेचन विशेषावश्यकभाष्य ग्रन्थ में निबद्ध किया है। जिन्होंने छेदसूत्रों के अर्थ के आधार पर पुरुष विशेष के पृथक्करण के अनुसार प्रायश्चित्त की विधि का विधान करने वाले जीतकल्पसूत्र की रचना की है। ऐसे पर-समय के सिद्धान्तों में निपुण संयमशील श्रमणों के मार्ग के अनुगामी और क्षमाश्रमणों में निधानभूत जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण को नमस्कार हो । प्रस्तुत वर्णन से यह स्पष्ट है कि जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण आगम साहित्य के एक मर्मज्ञ विद्वान थे। उनके लिए बाद के आचार्यों ने अनेक विशेषणों का प्रयोग किया है। जैसलमेर भण्डार से पुरातत्त्ववेत्ता मुनिश्री जिनविजयजी को विशेषावश्यक भाष्य की एक प्रति प्राप्त हुई, उस प्रति के अन्त में ये दो गाथाएँ हैं पंचसता इगतीसा सगणिव कालस्स वट्टमाणस्स । तो चेत्तपुण्णिमाए बुधदिण सातिमि णक्खते ।। रज्जे ण पालणपरे सी (लाइ) च्चम्मि परवरिन्दम्मि । वलभीणगरीए इमं महवि"......मि जिणभवणे ॥ इन गाथाओं के आधार से मुनिजी ने भाष्य का रचनाकाल विक्रम सं० ६६६ माना है। इन गाथाओं का अर्थ इस प्रकार है-शक संवत् ५३१ (विक्रम सं०६६६) में वलभी में जिस समय शीलादित्य राज्य करता था, उस समय चैत्र शुक्ला पूर्णिमा, बुधवार और स्वाति नक्षत्र में विशेषावश्यक भाष्य की रचना पूर्ण हुई। पं० दलसुख मालवणिया मुनि जिनविजयजी के प्रस्तुत कथन से १ जीतकल्पचूर्णि, गा० ५-१०
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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