________________
आगमों का व्याख्यात्मक साहित्य
४५६
लिखा है कि "प्रारम्भ में 'वाचक' शब्द शास्त्र विशारद के लिए प्रचलित था पर जब वाचकों में क्षमाश्रमणों की संख्या में अभिवृद्धि होती गई तब 'क्षमाश्रमण' शब्द भी वाचक के पर्याय के रूप में व्यवहृत होने लगा। अथवा 'क्षमाश्रमण' शब्द आवश्यकसूत्र के सामान्य गुरु के अर्थ में भी प्रयुक्त हुआ है। इसलिए सम्भव है कि शिष्य विद्यागुरु को क्षमाश्रमण के नाम पुकारता रहा हो । अतः क्षमाश्रमण और वाचक ये एकार्थक बन गये। जैन समाज में जब वादियों को प्रतिष्ठा प्राप्त हुई तब शास्त्र विशारद होने के कारण वाचकों को 'वादी' कहा होगा और कुछ समय के पश्चात् वादी वाचक का ही पर्यायवाची बन गया। आचार्य सिद्धसेन को शास्त्र-विशारद होने से दिवाकर की उपाधि प्रदान की गई। अतः वाचक का पर्यायवाची दिवाकर भी है। आचार्य जिनभद्र का युग क्षमाश्रमणों का युग था अत: उनके पश्चात् के लेखकों ने उनके लिए बाचनाचार्य के स्थान पर क्षमाश्रमण शब्द का प्रयोग किया हो।" इस तरह वाचक, वाचनाचार्य, क्षमाश्रमण प्रभृति शब्द एक ही अर्थ के द्योतक हैं।
जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण निवृति कुल के थे । निवृति कुल के उद्भव के सम्बन्ध में पढ़ाबलियों में लिखा है कि भगवान महावीर के सत्रहवें पट्ट पर आचार्य वज्रसेन हुए। उनके उपदेश से प्रभावित होकर जिनदत्त (जिनदास) के नागेन्द्र, चन्द्र, निवृति और विद्याधर इन चार पुत्रों ने आहती दीक्षा ग्रहण की, उन्हीं के नाम से चार मुख्य कुल प्रचलित हुए।
जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण के जीवन के सम्बन्ध में इन तथ्यों के अतिरिक्त अन्य कोई भी सामग्री उपलब्ध नहीं होती। जीतकल्पणि में सिद्धसेनगणी ने जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण के गुणों का उत्कीर्तन इस प्रकार किया है
जो अनुयोगधर, युगप्रधान, प्रधान ज्ञानियों से बहुमत, सर्वश्रुति
१ गणधरवाद प्रस्तावना, पृ० ३१ २ (क) नागेन्द्र, चन्द्र, निवृति, विद्याधराख्यान चतुरः सकुटम्बान् इभ्यपुत्रान्
प्रवाजितकानतेभ्यश्च स्व-स्व नामांकितानि चत्वारि कुलानि संजातानीति ।
–तपागच्छ पट्टावली, भाग १, स्वोपज्ञवृत्ति-40 कल्याणविजयजी, पृ०७१ (ख) जैन साहित्य संशोधक, खण्ड २, अ०४, पृ० १० (ग) जैन गुर्जर कविओ, भाग २, पृ०६६६