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४५८ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा हैं। यह सम्भव है कि ये आचार्य हरिभद्र के समकालीन या उससे कुछ समय पहले हुए हों। व्यवहारभाष्य के निर्माता आचार्य जिनभद्र से पूर्व होने चाहिए। जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण
जैन साहित्य के इतिहास में जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण का एक विशिष्ट महत्त्वपूर्ण स्थान है। उनकी जन्मस्थली, माता-पिता आदि के सम्बन्ध में कुछ भी सामग्री प्राप्त नहीं हो सकी है। मूर्धन्य मनीषियों का ऐसा अभिमत है कि उन्हें अपने जीवन काल में कोई विशिष्ट और महत्त्वपूर्ण स्थान नहीं मिला था। उनके स्वर्गस्थ होने के पश्चात् उनकी महनीय मौलिक कृतियाँ देखकर सद्गुणग्राही आचार्यों ने आचार्य परम्परा में उन्हें शीर्षस्थ स्थान देना चाहा, पर सत्यतथ्य के अभाव में उन विभिन्न आचार्यों के विभिन्न मत मिलते हैं। यहाँ तक कि परस्पर विरोधी उल्लेख भी प्राप्त होते हैं। आश्चर्य तो यह है कि पन्द्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी में निर्मित पड़ावलियों में उन्हें आचार्य हरिभद्र का पट्टधर शिष्य लिखा है जबकि आचार्य हरिभद्र जिनभद्र से सौ वर्ष के पश्चात् हुए हैं।
वलभी के जैन भण्डार में शक सं० ५३१ में लिखी हुई विशेषावश्यक भाष्य की एक प्रति प्राप्त हुई है जिससे यह अनुमान होता है कि जिनभद्र का वलभी के साथ कुछ न कुछ सम्बन्ध अवश्य ही रहा होगा।
आचार्य जिनप्रभ ने विविधतीर्थकल्प में लिखा है कि जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने पन्द्रह दिन तक तप-साधना कर मथुरा में देव निर्मित स्तूप के देव की आराधना की और उस देव की सहायता से दीमकों द्वारा नष्ट किये गये महानिशीथसूत्र का उद्धार किया। इससे भी परिज्ञात होता है कि उनका सम्बन्ध मथुरा से भी था।
डा. उमाकान्त प्रेमानन्द शाह को अंकोट्टक-अकोटा ग्राम में ऐसी मूर्तियाँ मिली हैं, जिन पर यह लिखा है 'ॐ देवधर्मोयं निवृतिकुले जिनभद्र वाचनार्यस्य' एवं 'ॐ निवृतिकुले जिनभद्र वाचनाचार्यस्य' ।
इन उत्कीर्णों में जिनभद्र को निवृति कूल का और वाचनाचार्य लिखा है । गणधरवाद की प्रस्तावना में पं० दलसुखभाई मालवणिया ने
१ विविधतीर्थकल्प, पृ० १६ २ जैन सत्यप्रकाश, अंक १६६