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________________ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा arrafor प्रथम श्रुतकेवली भद्रबाहु को नमस्कार किया गया है फिर दश अध्ययनों के अधिकारों का वर्णन है। प्रथम असमाधिस्थान में द्रव्य और भाव समाधि के सम्बन्ध में चिन्तन कर, स्थान के नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, अद्धा, ऊर्ध्व, चर्या, वसति, संयम, प्रग्रह, योध, अचल, गणन, संस्थान, (संघाण) और भाव इन पन्द्रह निक्षेपों का वर्णन है। द्वितीय अध्ययन में शवल का नाम आदि चार निक्षेप से विचार किया है। तृतीय अध्ययन में आशातना का विश्लेषण है। चतुर्थ अध्ययन में 'गण' और 'सम्पदा' पर निक्षेप दृष्टि से चिन्तन करते हुए कहा गया है कि गणि और गुणी ये दोनों एकार्थक हैं। आचार ही प्रथम गणिस्थान है । सम्पदा के द्रव्य और भाव ये दो भेद हैं। शरीर द्रव्यसम्पदा है और आचार भावसम्पदा है । पञ्चम अध्ययन में चित्तसमाधि का निक्षेप की दृष्टि से विचार किया गया है। समाधि के चार प्रकार हैं। जब चित्त राग-द्वेष से मुक्त होता है, प्रशस्त ध्यान में तल्लीन होता है तब भावसमाधि होती है । षष्ठम अध्ययन में उपासक और प्रतिमा पर निक्षेप दृष्टि से चिन्तन किया गया है । उपासक के द्रव्योपासक, तदर्थोपासक, मोहोपासक और भावोपासक ये चार प्रकार हैं। भावोपासक वही हो सकता है जिसका जीवन सम्यग्दर्शन के आलोक से जगमगा रहा हो । यहाँ पर श्रमणोपासक की एकादश प्रतिमाओं का निरूपण है। सप्तम अध्ययन में श्रमण प्रतिमाओं पर चिन्तन करते हुए भावश्रमण प्रतिमा के समाधिप्रतिमा, उपधानप्रतिमा, विवेकप्रतिमा, प्रतिसंलीनप्रतिमा और विवेकप्रतिमा ये पाँच प्रकार बताये हैं । अष्टम अध्ययन में पर्युषणा कल्प पर चिन्तन कर परिवसना, पर्युषणा, पर्युपशमना, वर्षावास, प्रथम समवसरण, स्थापना और ज्येष्ठग्रह को पर्यायवाची बताया है | श्रमण वर्षावास में एक स्थान पर स्थित रहता है और आठ माह तक वह परिभ्रमण करता है। नवम अध्ययन में मोहनीयस्थान पर विचार कर उसके पाप, वर्ण्य, वैर, पंक, पनक, क्षोभ, असात, संग, शल्य, अंतर, निरति, धूर्त्य ये मोह के पर्यायवाची बताये गए हैं। दशम अध्ययन में जन्म-मरण के मूल कारणों पर चिन्तन कर उससे मुक्त होने का उपाय बताया गया है। बृहत्कल्पनियुक्ति सर्वप्रथम तीर्थंकरों को नमस्कार कर ज्ञान के विविध भेदों पर चिन्तन कर इस बात पर प्रकाश डाला है कि ज्ञान और मंगल में कथंचित् अभेद ४५२
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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