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आगमों का व्याख्यात्मक साहित्य ४५१ नवम् अध्ययन में उपधानश्रुत का निरूपण है। अन्य तीर्थंकरों का तपः कर्म निरुपसर्ग था किन्तु भगवान महावीर का तपःकर्म सोपसर्ग था। उपधान और श्रत पर भी निक्षेप दृष्टि से विचार किया है । तकिया द्रव्यउपधान है, तप और चारित्र यह भावउपधान हैं। जैसे मलिन वस्त्र उदकादिक द्रव्यों से साफ होता है वैसे ही भावउपधान से अष्ट प्रकार के कर्म नष्ट होकर आत्मा शुद्ध होता है। द्वितीय श्रुतस्कन्ध
प्रथम श्रुतस्कन्ध में जिन विषयों पर चिन्तन किया गया है, उन विषयों के सम्बन्ध में जो कुछ अवशेष रह गया उसका वर्णन द्वितीय श्रुतस्कन्ध में है। द्वितीय श्रुतस्कन्ध को अग्रश्रुतस्कन्ध भी कहा है। अग्र शब्द पर निक्षेप दृष्टि से चिन्तन करते हुए उसके आठ प्रकार बताये हैं-(१) द्रव्याग्र, (२) अवगाहनाग्र (३) आदेशाग्र, (४) कालाग्र, (५) क्रमान, (६) गणनाग्र, (७) संचयाग्र, (८) भावाग्र। भावान के भी प्रधानाग्र, प्रभूतान और उपकाराग्र ये तीन भेद हैं । यहाँ पर उपकाराग्र का वर्णन है।
प्रथम चूलिका के सात अध्ययन हैं। उनकी नामादि निक्षेप से व्याख्या की गई है। द्वितीय सप्तसप्तिका, तृतीय भावना और चतुर्थ विमुक्ति चूलिका की भी विशेष व्याख्या की गई है। पांचवीं निशीथ चूलिका की व्याख्या 'मैं बाद में करूंगा' यह सूचन किया गया है। इसमें बल्गुमती और गौतम नाम के नैमित्तिक की कथा आती है।
सूत्रकृताङ्गनियुक्ति प्रारम्भ में 'सूत्रकृताङ्ग' शब्द की व्याख्या की गई है। इसमें भी अनेक पदों की निक्षेप-पद्धति से व्याख्या की गई है। पन्द्रह प्रकार के परम अधार्मिक देवों के नाम गिनाये गये हैं। ये नरकवासियों को विविध यातनाएं देते हैं। इसमें क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानवादी और वैनयिक ये चार मुख्य भेद बताकर क्रमश: एक सौ अस्सी, चौरासी, सड़सठ और बत्तीस भेद किये हैं। इस प्रकार तीन सौ त्रेसठ मतान्तरों का निर्देश किया गया है। शिष्य और गुरु के भेद-प्रभेदों पर भी चिन्तन किया गया है। साथ ही गाथा, षोडश श्रुत, स्कन्ध, पुरुष, विभक्ति, समाधि, मार्ग, आदान, ग्रहण, अध्ययन, पुण्डरीक, आहार, प्रत्याख्यान, सूत्र, आर्द्र आदि शब्दों पर नाम आदि निक्षेपों से चिन्तन किया गया है। आर्द्रककूमार की कथा दी गई है। अन्त में नालन्दा शब्द पर भी चिन्तन किया गया है।