SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 48
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन आगम साहित्य : एक अनुशीलन १६ अंग, उपांग, मूल और छेद आगमों का सबसे उत्तरवर्ती चतुर्थ वर्गीकरण है-अंग, उपांग, मूल और छेद। नन्दीसूत्रकार ने मूल और छेद ये दो विभाग नहीं किये हैं और न वहाँ पर उपांग शब्द का ही प्रयोग हआ है। उपांग शब्द भी नन्दी के पश्चात् ही व्यवहृत हुआ है । नन्दी में उपांग के अर्थ में ही अंगबाह्य शब्द आया है। आचार्य उमास्वाति ने, जिनका समय पं. सुखलालजी ने विक्रम की पहली शताब्दी से चतुर्थ शताब्दी के मध्य माना है,' तत्त्वार्थभाष्य में अंग के साथ उपांग शब्द का प्रयोग किया है। उपांग से उनका तात्पर्य अंगबाह्य आगमों से ही है। आचार्य श्रीचन्द्र ने, जिनका समय ई० १११२ से पूर्व माना जाता है, उन्होंने सुखबोधा समाचारी की रचना की। उसमें उन्होंने आगम के स्वाध्याय की तपोविधि का वर्णन करते हए अंगबाह्य के अर्थ में 'उपांग' शब्द प्रयुक्त किया है। आचार्य जिनप्रभ, जिन्होंने ई० १३०६ में 'विधिमार्गप्रपा' ग्रन्थ पूर्ण किया था, उन्होंने उसमें आगमों की स्वाध्याय की तपोविधि का वर्णन करते हुए 'इयाणि उबंगा' लिखकर जिस अंग का जो उपांग है, उसका निर्देश किया है। जिनप्रभ ने 'वायणाविहीं की उत्थानिका में जो वाक्य दिया है, उसमें भी उपांग-विभाग का उल्लेख हुआ है। पण्डित बेचरदासजी दोशी का अभिमत है कि चूणि-साहित्य में भी १ तत्त्वार्थसूत्र--पं० सुखलालजी विवेचन पृ०६। २ अभ्यथा हि अनिबद्धमंगोपांगशः समुद्रप्रतरणवदुरध्यवसेयं स्यात्।। -तस्वार्थ भाण्य १-२० ३ सुखबोधा समाचारी पृ० ३१ से ३४ ४ पं० दलसुख मालवणिया-जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग १ की प्रस्तावना में पृ० ३८ । ५ एवं कप्पतिप्पाइविहिपुरस्सरं साहू समाणियसयलजोगविही मूलग्गन्थनन्दि अणुओगदार-उत्तरज्झयण-इसिभासिय-अंग-उचांग-पइण्णय-छयग्गन्थआगमेवाइज्जा ।-बायणाविहि पृ० ६४ जैन सा वृ० इ० प्रस्तावना, पृ० ४०-४१ से ।
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy