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जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा
उपांग शब्द का प्रयोग हुआ है। किन्तु सर्वप्रथम किसने किया, यह अन्वेषण का विषय है।
मूल और छेद सूत्रों का विभाग किस समय हुआ, यह निश्चित रूप से तो नहीं कहा जा सकता किन्तु इतना स्पष्ट है कि दशवकालिक, उत्तराध्ययन आदि की नियुक्ति, चूणि और वृत्तियों में मूलसूत्र के सम्बन्ध में किञ्चित्मात्र भी चर्चा नहीं की गई है। इससे यह ध्वनित होता है कि ग्यारहवीं शताब्दी तक 'मूलसूत्र' इस प्रकार का विभाग नहीं हुआ था। यदि हुआ होता तो अवश्य ही उसका उल्लेख इन ग्रन्थों में होता।
श्रावक विधि के लेखक धमपाल ने, जिनका समय विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी माना जाता है, अपने अन्य में पैंतालीस आगमों का निर्देश किया है और विचारसार-प्रकरण के लेखक प्रद्युम्नसूरि ने भी, जिनका समय विक्रम की तेरहवीं शताब्दी है, पैतालीस आगमों का तो निर्देश किया है। पर मूलसूत्र के रूप में विभाग नहीं किया है।
विक्रम संवत् १३३४ में निर्मित प्रभावक-चरित्र में सर्वप्रथम अंग, उपांग, मूल और छेद का विभाग मिलता है और उसके पश्चात् उपाध्याय समयसुन्दर गणी ने भी समाचारीशतक में उसका उल्लेख किया है। फलितार्थ यह है कि मूलसूत्र विभाग की स्थापना तेरहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में हो चुकी थी।
दशवकालिक, उत्तराध्ययन आदि आगमों को 'मूलसूत्र' यह अभिधा क्यों दी गई, इसके संबंध में विभिन्न विज्ञों ने विभिन्न कल्पनाएँ की हैं। १. जैन साहित्य का इतिहास, भा० १ 'जैन श्रुत', पृ. ३० .
देखिए-दशवकालिक हारिभद्रीया वृत्ति, और उत्तराध्ययन शान्त्याचार्यकृत
बृहद् वृत्ति । ३ गाथासहस्री में समयसुन्दर मणी ने धनपालकृत 'श्रावकविधि' का निम्न उद्धरण ... दिया है-'पणयालीसं आगम', श्लो० २६७, पृ० १८ । ४ विचारलेस, गाथा ३४४-३५१ (विचारसार प्रकरण) ५ ततश्चतुर्विधः कार्योऽनुयोगोऽतः परं मया । ततोऽङ्गोपाङ्गमूलाख्यग्रन्थच्छेदकृतागमः ॥२४१॥
-प्रभावक चरितम्, दूसरा आर्यरक्षित प्रबन्ध
(प्र. सिंघी जैन ग्रन्थमाला, अहमदाबाद) ६ समाचारी शतक पत्र-७६