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जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा
है और दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्य को भावाचार कहा है । कथा के अर्थ, काम, धर्म और मिश्र रूप से चार भेद किये गये हैं एवं उनके अवान्तर भेद भी किये गये हैं। श्रमण क्षेत्र, काल, पुरुष, सामर्थ्य प्रभृति को संलक्ष्य में रखकर अनवद्य कथा करे ऐसा विधान किया गया है।
चतुर्थ अध्ययन में षड्जीवनिकाय का निरूपण है। इसमें एक, षड्, जीवनिकाय और शास्त्र का निक्षेप दृष्टि से चिन्तन किया गया है। जीव के लक्षणों का प्रतिपादन करते हुए कहा है आदान, परिभोग, योग, उपयोग, कषाय, लेश्या, आन, आपान, इन्द्रिय, बन्ध, उदय, निर्जरा, वित्त, चेतना, संज्ञा, विज्ञान, धारणा, बुद्धि, ईहा, मति, वितर्क से जीव को पहचाना जा सकता है। शस्त्र के द्रव्य और भाव रूप ये दो भेद किए हैं। द्रव्यशस्त्र स्वकाय, परकाय और उभयकाय रूप होता है। भावशस्त्र असंयम रूप है ।
पञ्चम अध्ययन भिक्षा विशुद्धि से सम्बन्धित है । पिण्डेषणा में पिण्ड और एषणा ये दो पद हैं। इन पर निक्षेप पूर्वक चिन्तन किया गया है। गुड़, ओदन आदि द्रव्यपिण्ड हैं तथा क्रोध, मान, माया और लोभ ये भावपिण्ड हैं। द्रव्येषणा सचित्त, अचित्त और मिश्र रूप से तीन प्रकार की है। भावेपणा प्रशस्त और अप्रशस्त रूप से दो प्रकार की है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि प्रशस्त भाषणा है और क्रोध आदि अप्रशस्त भावैषणा है। किन्तु यहाँ पर द्रव्यंषणा का ही वर्णन किया गया है क्योंकि भिक्षा विशुद्धि से तप और संयम का पोषण होता है ।
पष्ठम अध्ययन में बृहद् आचार कथा का प्रतिपादन है । महत् की नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, प्रधान, प्रतीत्य और भाव इन आठ भेदों से चिन्तन किया है । धान्य और रत्न के २४-२४ प्रकार बताये गये हैं ।
सप्तम अध्ययन का नाम 'वाक्यशुद्धि' है । वाक्य, वचन, गिरा, सरस्वती, भारती, गो, वाक्, भाषा, प्रज्ञापनी, देशनी, वाग्योग, योग ये सभी एकार्थक शब्द हैं। जनपद आदि के भेद से सत्यभाषा दस प्रकार की होती
। क्रोध आदि के भेद से मृषाभाषा भी दस प्रकार की होती है। उत्पन्न होने के प्रकार से मिश्रभाषा अनेक प्रकार की है और असत्यामृषा आमंत्रणी आदि के भेद से अनेक प्रकार की है। शुद्धि के भी नाम आदि चार निक्षेप हैं। भावशुद्धि तद्भाव, आदेशभाव और प्राधान्यभाव रूप से तीन प्रकार की है।
अष्टम अध्ययन आचारप्रणिधि है । प्रणिधि द्रव्यप्रणिधि और भाव