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आगमों का व्याख्यात्मक साहित्य
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में अशन आदि का त्याग किया जाता है और भावप्रत्याख्यान में अज्ञान आदि का। प्रत्याख्यान का अधिकारी वही साधक है जो व्यक्षिप्त व अविनीत न हो।
श्रमण जीवन को महान व तेजस्वी बनाने के लिए श्रमण जीवन से सम्बन्धित सभी विषयों की चर्चाएं प्रस्तुत नियुक्ति में की गई हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से भी इस नियुक्ति का अत्यधिक महत्व है। ऐसे अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्य इसमें उजागर हुए हैं जो इससे पूर्व की रचनाओं में कहीं पर भी दृष्टिगोचर नहीं होते।
दशवकालिकनियुक्ति दशवकालिक में 'दश' शब्द का प्रयोग दस अध्ययन की दृष्टि से हआ है और काल का प्रयोग इसलिए हआ है कि इसकी रचना उस समय पूर्ण हई जबकि पौरुषी व्यतीत हो चुकी थी अर्थात् अपराह्न का समय हो चुका था। - प्रथम अध्ययन का नाम द्रुमपुष्पिका है। इसमें धर्म की प्रशंसा करते हए उसके लौकिक और लोकोत्तर ये दो भेद बताए हैं। लौकिक धर्म के ग्रामधर्म, देशधर्म, राज्यधर्म आदि अनेक भेद हैं और लोकोत्तर धर्म के श्रतधर्म तथा चारित्रधर्म ये दो भेद हैं। श्रुतधर्म स्वाध्याय रूप है और चारित्रधर्म श्रमणधर्म रूप है । अहिंसा, संयम और तप की सुन्दर परिभाषा प्रस्तुत की गई है। प्रतिज्ञा, हेतु, विभक्ति, विपक्ष, प्रतिबोध, दृष्टान्त, आशंका, तत्प्रतिषेध, निगमन आदि दस अवयवों से प्रथम अध्ययन का परीक्षण किया गया है।
द्वितीय अध्ययन में धृति की संस्थापना की गई है। प्रारम्भ में निक्षेपपद्धति 'श्रामण्य पूर्वक' की व्याख्या की गई है। श्रामण्य की चार निक्षेप से और 'पूर्वक' की तेरह प्रकार से विवेचना की गई है। श्रमण के प्रवजित, अनगार, पासण्डी, चरक, तापस, भिक्षु, परिव्राजक, श्रमण, निर्ग्रन्थ, संयत, मुक्त, तीर्ण, त्राता, द्रव्य, मुनि, क्षान्त, दान्त, विरत, रूक्ष, तीरार्थी ये पर्यायवाची दिये हैं । भावभ्रमण का संक्षेप में सारग्राही चित्र प्रस्तुत किया गया है।
. तृतीय अध्ययन में क्षुल्लिका अर्थात् लधु आचार कथा का अधिकार है । क्षुल्लक, आचार और कथा इन तीनों का निक्षेप दृष्टि से चिन्तन है। क्षुल्लक का नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, प्रधान, प्रतीत्य और भाव इन आठ भेदों की दृष्टि से चिन्तन किया गया है। आचार का निक्षेप दृष्टि से चिन्तन करते हुए नामन, धावन, वासन, शिक्षापन आदि को द्रव्याचार कहा