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४४२ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा बहुरत, जीव प्रदेश, अव्यक्त, समुच्छेद, द्विक्रिया, त्रिराशि और अबद्ध मत की संस्थापना की थी।
नय दृष्टि से सामायिक पर चिन्तन करने के पश्चात् सम्यक्त्व, श्रुत और चारित्र ये तीन सामायिक के भेद किये। जिसकी आत्मा संयम, नियम और तप में रमण करती है, जिसके अन्तर्मानस में प्राणी मात्र के प्रति समभाव का समुद्र ठाठे मारता रहता है वही सामायिक का सच्चा अधिकारी है।
सामायिकसूत्र के प्रारम्भ में नमस्कार मन्त्र आता है। इसलिए नमस्कार मन्त्र की उत्पत्ति, निक्षेप, पद, पदार्थ, प्ररूपणा, वस्तु, आक्षेप, प्रसिद्धि, क्रम, प्रयोजन और फल इन ग्यारह दृष्टियों से नमस्कार महामन्त्र पर चिन्तन किया गया है। जो साधक के लिए बहत ही उपयोगी है। सामायिक में तीन करण और तीन योग से सावध प्रवृत्ति का परित्याग होता है।
दूसरा अध्ययन चतुर्विशतिस्तव का है। इसमें नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव, इन छह निक्षेपों की दृष्टि से प्रकाश डाला गया है।
तृतीय अध्ययन वन्दना का है। चितिकर्म, कृतिकर्म, पूजाकर्म और विनयकर्म ये वन्दना के पर्यायवाची हैं । वन्दना किसे करनी चाहिए ? किसके द्वारा होनी चाहिए? कब होनी चाहिए? कितनी बार होनी चाहिए? कितनी बार सिर झुकाना चाहिए? कितने आवश्यकों से शुद्ध होनी चाहिए? कितने दोषों से मुक्त होनी चाहिए? वन्दना किसलिए करनी चहिए? प्रभूति नौ बातों पर विचार किया गया है। वही श्रमण वन्दनीय है जिसका आचार उत्कृष्ट है और विचार निर्मल हैं। जिस समय श्रमण आहार आदि में व्यस्त हो उस समय वन्दन नहीं करना चाहिए। जिस समय वह प्रशान्त, आसनस्थ और उपशान्त हो उसी समय वन्दना करनी चाहिए।
चतुर्थ अध्ययन का नाम प्रतिक्रमण है। प्रमाद के कारण आत्मभाव से जो आत्मा मिथ्यात्व आदि पर-स्थान में जाता है, उसका पून: अपने स्थान में आना प्रतिक्रमण है। प्रतिचरणा, परिहरणा, वारणा, निवृत्ति, निन्दा, गहीं, शुद्धि ये प्रतिक्रमण के पर्यायवाची हैं। इनके अर्थ को समझाने के लिए प्रस्तुत नियुक्ति में दृष्टान्त दिये गये हैं।
प्रतिक्रमण दैवसिक, रात्रिक, इत्वरिक, यावत्कथिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक, उत्तमार्थक प्रभृति अनेक प्रकार का होता है। मिथ्यात्वप्रति