________________
आगमों का व्याख्यात्मक साहित्य ४४३ क्रमण, असंयमप्रतिक्रमण, कषायप्रतिक्रमण, अप्रशस्तयोग प्रतिक्रमण और संसारप्रतिक्रमण ये पाँच प्रतिक्रमण के प्रकार हैं। भावप्रतिक्रमण वह है जिसमें तीन करण तीन योग से मिथ्यात्व आदि का सेवन न किया जाय । विषय को स्पष्ट करने के लिए नागदत्त आदि की कथा दी गई है। इसके पश्चात् आलोचना, निरपलाप, आपत्ति में दृढ़धर्मता आदि बत्तीस योगों का संग्रह किया गया है और उन्हें समझाने के लिए महागिरि, स्थूलभद्र, धर्मघोष, सुरेन्द्रदत्त, वारत्तक, धन्वन्तरी वैद्य, करकण्डु, आर्य पुष्पभूति आदि के उदाहरण भी दिये गये हैं। साथ ही स्वाध्याय अस्वाध्याय के सम्बन्ध में प्रकाश डाला गया है।
पाँचवें अध्ययन में कायोत्सर्ग का निरूपण है । कायोत्सर्ग और व्युत्सर्ग ये एकार्थवाची हैं। यहाँ पर कायोत्सर्ग का अर्थ व्रण चिकित्सा है। जिस प्रकार का व्रण हो उसी प्रकार की चिकित्सा करनी चाहिए। कुछ दोष आलोचना से ठीक होते हैं तो कुछ दोष प्रतिक्रमण से और कुछ दोष कायोत्सर्ग से ठीक होते हैं ।
कायोत्सर्ग के चेष्टाकायोत्सर्ग और अभिभवकायोत्सर्ग ये दो प्रकार हैं। भिक्षाचर्या आदि में होने वाला चेष्टाकायोत्सर्ग है । उपसर्ग आदि में होने वाला अभिभवकायोत्सर्ग है । अभिभवकायोत्सर्ग की कालमर्यादा कम से कम अन्तर्मुहूर्त की है और अधिक से अधिक एक संवत्सर की है । कायोत्सर्ग खड़े, बैठे और सोते हुए भी किया जा सकता है। कायोत्सर्ग से देह और बुद्धि की जड़ता मिटती है। सुख-दुःख को सहन करने की क्षमता समुत्पन्न होती है। उसमें अनित्य, अशरण आदि द्वादश अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन होता है। मन की चंचलता नष्ट होकर शुभध्यान का अभ्यास निरन्तर बढ़ता है । यहाँ पर नियुक्तिकार ने शुभध्यान पर चिन्तन करते हुए कहा है कि अन्तर्मुहूर्त तक जो चित्त की एकाग्रता है वही ध्यान है । उस ध्यान के आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल ये चार प्रकार बताये हैं। प्रथम दो संसार-अभिवृद्धि के हेतु होने से अप-ध्यान हैं और अन्तिम दो ध्यान मोक्ष के कारण होने से प्रशस्त हैं। ध्यान के सम्बन्ध में अन्य बातों पर भी चिन्तन किया गया है।
नियत कायोत्सर्ग में उच्छ्वासों की संख्या पर प्रकाश डालते हुए कहा है- देवसिक में सौ उच्छ्वास, रात्रिक में पचास, पाक्षिक में तीन सौ