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________________ ४४० जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा समय है। ईहा अवाय का अन्तम हर्त और धारणा का संख्येय समय, असंख्येय समय और अन्तर्मुहूर्त है।' ईहा, अपोह, विमर्श, मार्गणा, गवेषणा, संज्ञा, स्मृति, मति और प्रज्ञा ये आभिनिबोधिक के पर्यायवाची हैं। इसके पश्चात आभिनिबोधिक ज्ञान के स्वरूप की चर्चा गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, लेश्या, सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, संयत, उपयोग, आहार, भाषक, परीत्त, पर्याप्तक, सूक्ष्म, संज्ञी, भव और चरम इन सभी दृष्टियों से की है। उसके पश्चात् श्रुतज्ञान पर चिन्तन करते हुए इसके अक्षर, संज्ञी आदि चौदह प्रकार बताये हैं। इसके बाद अवधिज्ञान के असंख्य भेदों का प्रतिपादन कर फिर भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय ये दो भेद किये हैं। फिर स्वरूप, क्षेत्र, संस्थान, आनुगामिक, अवस्थित, चल, तीव्रमन्द, प्रतिपातोत्पाद, ज्ञान, दर्शन, विभंग, देश, क्षेत्र और गति-इन चौदह निक्षेपों की दृष्टि से विचार किया गया है । नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव इन सात निक्षेपों से अवधिज्ञान की चर्चा की गई है। सबसे अधिक विस्तार अवधिज्ञान का किया गया है। मनःपर्यवज्ञान मानव क्षेत्र तक सीमित है वह गुणप्रात्ययिक और चारित्रवानों की निधि है। केवलज्ञान समस्त द्रव्य और पर्यायों को जानता है, वह अप्रतिपाती है। ज्ञान के वर्णन के पश्चात् षडावश्यक का निरूपण है। उसमें सर्वप्रथम सामायिक है। सामायिक के अध्ययन के पश्चात् ही अन्य आगम साहित्य के पढ़ने का विधान है--सामाइयमाइयाई एक्कारसअंगाई अहिज्जइ ।२ चारित्र का प्रारम्भ ही सामायिक से होता है । मुक्ति के लिए ज्ञान और चारित्र ये दोनों आवश्यक हैं। ज्ञानरहित चारित्र अंधा है तो चारित्ररहित ज्ञान पंगु है जो अपने लक्ष्य पर नहीं पहुंच सकता। सामायिक का अधिकारी श्रुतज्ञानी होता है वह क्षय, उपशम, क्षयोमशय कर केवलज्ञान और मोक्ष प्राप्त करता है। उपशम व क्षपकश्रेणी पर भी चिन्तन किया गया है। सामायिक श्रुत का अधिकारी ही तीर्थकर जैसे गौरवशाली पद को प्राप्त करता है। तीर्थंकर केवलज्ञान होने के पश्चात जिस श्रुत का उपदेश प्रदान करते हैं वही जिन प्रवचनश्रुत है। श्रुत के ही प्रवचन, धर्म, तीर्थ और मार्ग ये पर्यायवाची हैं। सूत्र, तन्त्र, ग्रन्थ, पाठ और शास्त्र ये एकार्थक हैं। १ आवश्यकनियुक्ति, १-४ २ अन्तकृतदशांग, प्रथम वर्ग
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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