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जैन भागम साहित्य : एक अनुशीलन १७ मित्र की भी यह स्थिति है तो अल्पमेधावी मुनि किस प्रकार स्मरण रख सकेंगे?
पूर्वोक्त कारण से आचार्य आर्यरक्षित ने पृथक्त्वानुयोग का प्रवर्तन किया। चार अनुयोगों की दृष्टि से उन्होंने आगमों का वर्गीकरण भी किया।
सूत्रकृतांग चूणि के अभिमतानुसार अपृथक्त्वानुयोग के समय प्रत्येक सूत्र की व्याख्या चरण-करण, धर्म, गणित और द्रव्य आदि अनुयोग की दृष्टि से व सप्त नय की दृष्टि से की जाती थी, परन्तु पृथक्त्वानुयोग के समय चारों अनुयोगों की व्याख्याएं अलग-अलग की जाने लगीं।
यह वर्गीकरण करने पर भी यह भेद-रेखा नहीं खींची जा सकती कि अन्य आगमों में अन्य वर्णन नहीं है। उत्तराध्ययन में धर्म-कथाओं के अतिरिक्त दार्शनिक तत्व भी पर्याप्त रूप से हैं। भगवती सूत्र तो सभी विषयों का महासागर है ही। आचारांग आदि में भी यही बात है । सारांश यह है कि कुछ आगमों को छोड़कर शेष आगमों में चारों अनुयोगों का संमिश्रण है । एतदर्थ प्रस्तुत वर्गीकरण स्थूल वर्गीकरण ही रहा।
१ ततो आयारिएहि दुब्बलिय पुस्समित्तो तस्स वायणायरियओ दिण्णी, ततो सो
का वि दिवसे वायणं दाऊण आयरियमुवट्ठितो भणइ मम वायणं देतस्स नासति, जं च सण्णायघरे नाणुप्पेहियं, अतो मम अज्झरतस्स नवमं पुब्बं नासिहिति ताहे आयरिया चितति-'जइ ताव एयस्स परममेहाविस्स एवं शरंतस्स नासइ अन्नस्स चिरगड्ढं चेव ।'
-आवश्यक वृत्ति, पृ०३० २ (क) अपुहत्ते अणुओगो चत्तारि दुवार भासई एगो।
पहत्ताणुओगकरणे ते अत्था तओ उ खुच्छिन्ना ।। देविंदवंदिएहिं महाणुमावेहि रक्खिअज्जेहिं । जुममासज्ज विहत्तो अणुओगे ता कओ चउहा ॥
-आवश्यक नियुक्ति गा० ७७३-७७४ (ख) चतुर्थंककसूत्रार्थाख्याने स्यात् कोपि न अमः । ततोऽनुयोगांश्चतुरः पार्थक्येन व्यधात् प्रभुः।
-आवश्यक कथा १७४ ३ जत्य एते चत्तारि अणुयोगा पिहप्पिहं वक्खाणिज्जंति पुहत्ताणुयोगे अपहृत्ताणुजोगो, पुण जे एक्केक्क सुत्तं एतेहिं चउहि वि अणुयोगेहि सत्तहिं गयसत्तेहि वक्खाणिज्जति।
-सूत्रकृतचूणि, पत्र ४