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४३. जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा सम्भावना से असंस्पृष्ट हाथ और पात्र से भिक्षा लेने का निषेध किया है और संस्पृष्ट हाथ और पात्र से भिक्षा लेने का विधान है। रोटी आदि सूखी वस्तु जिसका लेप न लगे और जिसे देने के पश्चात् हाथ आदि धोना न पड़े । सामान्य विधि यह है कि मुनि अलेप-कर आहार ले, किन्तु शरीर अस्वस्थ हो, संयम-योग की वृद्धि के लिए शक्ति संचय करना आवश्यक हो तो दूध, दही, घृत, तेल, मिष्ठान आदि विकृतियाँ भी ले सकता है।
(१०) छदित-नीचे बूंदें गिर रही हों ऐसा आहार लेना। प्रासंषणा के पांच दोष
श्रमण और श्रमणियाँ जब आहार करने बैठते हैं तब जो आहार करते समय दोष लगते हैं वे ग्रासैषणा या परिभोगैषणा के दोष कहलाते हैं। वे पांच हैं :---
(१) संयोजना-रस लोलुपता के कारण दूध और शक्कर आदि द्रव्यों को परस्पर में मिलाना।
(२) अप्रमाण-मात्रा से अधिक खाना । जिस व्यक्ति का जितना आहार है उससे किञ्चित् मात्र भी स्वाद आदि के लिए खाना अप्रमाण है।
(३) अङ्गार-सुस्वादु भोजन की प्रशंसा करते हुए खाना ।
भगवतीसूत्र में भगवान ने कहा है-जो साधु या साध्वी प्रासुक, एषणीय, अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य, ग्रहण कर उसमें मूच्छित, गृद्ध, स्नेहाबद्ध और एकाग्र होकर आहार करता है वह अंगार दोषयुक्त है। यह दोष चारित्र को जलाकर कोयला स्वरूप निस्तेज बना देता है अतः अंगार है।
(४) धूम-नीरस आहार की निन्दा करते हुए खाना ।
(५) अकारण-साधु के लिए छह कारणों से भोजन करना विहित है। वे छह कारण ये हैं-(१) क्षुधानिवृत्ति (२) वैयावृत्य-आचार्य आदि की वैयावृत्य करने के लिए। (३) ईर्यार्थ- मार्ग को देख-देखकर चलने के लिए। (४) संयमार्थ-संयम पालन के लिए। (५) प्राण-धारणार्थ संयमजीवन की रक्षा के लिए। (६) धर्म-चिन्तनार्थ-शुभ ध्यान करने के लिए। इन छह कारणों के अतिरिक्त आहार करना अकारण आहार है।
इस प्रकार पिण्डनियुक्ति में श्रमणों के आहारादि के सम्बन्ध में चिन्तन किया गया है। अत: इस नियुक्ति को मूलसूत्र के रूप में भी माना गया है।
भोजन ही
क्षुषानिवृत्ति
त्य करने के