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जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा
है। यक्ष के रूप में ये भूमि पर विचरण करते हैं। श्रमणभक्त के सम्मुख दान की प्रशंसा करके उससे दान प्राप्त करने की इच्छा वाला श्रमणवनीपक कहलाता है। श्रमण के निर्ग्रन्थ, शाक्य, तापस, परिव्राजक और आजीवक ये पांच भेद किये हैं।
(६) चिकित्सा-औषधि आदि बताकर आहार लेना। (७) क्रोध-क्रोध करना या शापादि का भय दिखाना। (5) मान-अपना प्रभुत्व जमाकर आहार लेना। (९) माया-छल-कपट से आहार लेना।
(१०) लोभ-सरस भिक्षा के लिए अधिक घूमना । क्रोध, मान, माया और लोभ से भिक्षा प्राप्त करने वाले श्रमणों के उदाहरण भी इसमें दिये गये हैं।
(११) पूर्व पश्चात्संस्तव-दान देने वालों के माता-पिता अथवा सास-ससुर प्रभृति का परिचय प्रदान कर तथा भिक्षा के पूर्व या बाद में उनकी यशोगाथा गाकर भिक्षा प्राप्त करना।
(१२) विद्या-भिक्षा प्राप्त करने के लिए विद्या का प्रयोग करना।
(१३) मंत्र-भिक्षा प्राप्त करने के लिए मंत्र का प्रयोग करना। प्रतिष्ठानपुर के राजा मुरुण्ड की भयंकर सिर-वेदना को दूर करने वाले पादलिप्त सूरि का यहाँ पर उदाहरण दिया गया है।
(१४) चूर्ण-चूर्ण आदि वशीकरण का प्रयोग करके आहार ग्रहण करना। आँखों में इस प्रकार का अंजन लगा देना, जिससे दाता मुग्ध होकर उदार भावना से दान दे। दो क्षुल्लक मुनियों का यहाँ उदाहरण दिया है।
(१५) योग-पादलेप आदि योग-विद्या का प्रदर्शन कर आहार आदि ग्रहण करना। इसमें समित सूरि का उदाहरण दिया गया है।
(१६) मूलकर्म-गर्भ स्तंभन, रक्षण, पतन आदि बताकर आहारादि प्राप्त करना । इसके लिए जंधापरिजित नामक श्रमण का उदाहरण दिया गया है। ग्रहणवणा के दोष
गृहस्थ और श्रमण दोनों के निमित्त से जो दोष लगता है वह ग्रहणषणा दोष कहलाता है। उसके दस प्रकार हैं
(१) शङ्कित-आधाकर्मादि दोषों की शंका होने पर भी लेना। शंकासहित लिया हुआ आहार शुद्ध होने पर भी कर्मबन्ध का हेतु होने से