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________________ अंगबाह्य आगम साहित्य ४२७ (१४) आच्छेद्य-दुर्बल से छीन कर देना। (१५) अनिसृष्ट-साझे की वस्तु दूसरों की बिना आज्ञा देना। (१६) अध्यवपूरक - साधु को गांव में आया जान कर अपने लिए बनाये हुए भोजन में और बढ़ा देना। उत्पादन दोष साधु द्वारा लगने वाले दोष उत्पादन के दोष कहलाते हैं। ये आहार की याचना के दोष हैं। इनके भी सोलह प्रकार हैं (१) धात्री-धाय माँ की तरह गृहस्थ के बालकों को खिलापिलाकर, हंसा-रमा कर आहार लेना। संगमसूरि नन्हें-नन्हें बालकों के साथ क्रीड़ा करके भिक्षा लाते थे। जब यह ज्ञात हुआ तो उन्हें प्रायश्चित्त लेकर शुद्धिकरण करना पड़ा। (२) दूती-दूत के समान सन्देशवाहक बनकर आहार लेना। धनदत्त मुनि इसी प्रकार शिक्षा प्राप्त करते थे। (३) निमिन्त-शुभाशुभ निमित्त बताकर आहार लेना।। (४) आजीव-आहार के लिए जाति, कुल, गण, कर्म व शिल्प आदि बताकर शिक्षा ग्रहण करना। (५) बनीपक-दूसरों के समक्ष अपनी दरिद्रता का प्रदर्शन कर या उनके मनोनुकूल बोलकर जो द्रव्य प्राप्त होता है वह 'वनी' कहलाता है और जो उसको पीए या आस्वादन करे या उसकी रक्षा करे वह वनीपक कहा जाता है । बनीपक के अतिथि-वनीपक, कृपण-वनीपक, ब्राह्मण-वनीपक, श्व-वनीपक और श्रमण-वनीपक ये पांच प्रकार किये हैं। आचार्य अभयदेव ने स्थानाङ्गवृत्ति में लिखा है कि अतिथि-भक्त के सम्मुख अतिथि-दान का प्रशंसा कर उससे दान की इच्छा करने वाला अतिथि-वनीपक है। इसी तरह कृपण (दरिद्र आदि) भक्त के सामने कृपण-दान की प्रशंसा कर और ब्राह्मणभक्त के सामने ब्राह्मण-दान का महत्त्व प्रदर्शित कर उससे दान की इच्छा करने वाला क्रमश: कृपण-वनीपक और ब्राह्मण-वनीपक के नाम से विश्रुत है । श्वभक्त-कुत्ते के भक्त के सम्मुख कुत्ते-दान की प्रशंसा कर उससे दान प्राप्त करने वाला श्व-वनीपक कहलाता है। उसका यह अभिमत है कि गाय प्रभृति पशुओं को घास मिलना सरल है किन्तु कुत्ते को सभी दुत्कारते हैं, उसे भोजन मिलना अत्यधिक कठिन है। तुम कुत्तों को साधारण पशु मत समझो। ये तो कैलाश पर्वत पर रहने वाले साक्षात् यक्ष
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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